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________________ ६७ रखकर ही होते हैं। कुछ लोग तत्वज्ञान के प्रति ग्राकर्षित होते है, लेकिन इसके पीछे अधिकतर सिर्फ कुतूहल की ही दृष्टि होती है । ये लोग 'जानने' के उद्देश्य में ही उसका अध्ययन करते है, आचरण करने के लिए मानद ही करते हों । यदि हम यह कहे कि पाश्चात्य देशों में ग्रामविकास के लिये, ग्राध्यात्मिक क्षेत्र में उपयोगी हो ऐसे तत्वज्ञान वा संशोधन करने के विचार किसी के भी दिमाग मे पैदा नही हुए हैं, तो यह गलत न होगा । ग्रधिकाय में यह बात सही है । इसका मुन्य कारण तो यह है कि उनके यहाँ 'शरीर ने नग श्रात्मतत्व' की मान्यता ही नहीं है । मानव-मानव के बीच मेलजोल, सद्भाव और व्यवहार की है, इस बात को तो पाश्चात्य देशों के लोगो ने भी स्वीकार किया है। लेकिन उनका हेतु निर्क ऐहिक मुख-साधनो की वृद्धि करने तक ही सीमित रहा है। मान्य देश में किसी के मन में आत्मविकास के लिये ग्रावश्यक तत्त्वज्ञान को संशोधन करने का विचार अभी तक नहीं खाया । इसीलिये वे तत्त्वज्ञान के पूर्ण विकास को छाया ने वचित रहे है । इसके विपरीत भारत में, 'धर्म' और 'तत्त्वज्ञान ग्राम विकास के नावन माने गये हैं । और हनी दृष्टि से उनका विकास हुआ है। दोनों एक दूसरे के पूरक बन कर रहे है । न जाने प्रकृति को कौन नी ऐसी मार्केनिक लोला है जिसके कारण एशिया खड ही दुनिया भर के सभी वर्मा उद्भवस्थान बना रहा है। हिन्दू धर्म, जन धर्म, बीड ईनाई
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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