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________________ ५१ अर्थात् वे कर्म भुगत लिये जाने पर समय पूरा होते ही-अपने आप दूर हो जाते हैं। (८) वध ---जिस तरह दूध में पानी मिल जाता है उसी तरह कर्म का आत्मा के साथ संबंध स्थापित हो जाय, वह वन्धन । (E) मोक्ष.-सभी कर्मों के क्षय के कारण आत्मा की मुक्ति । जैन दार्शनिको ने छ द्रव्यो की भांति इन नौ तत्त्वो का अति सूक्ष्म अवलोकन किया है । यहाँ तो उनकी अत्यन्त सक्षिप्त व्याख्या दी गई है। यदि आपको इस विपय में दिलचस्पी हो तो उस विषय से सम्बन्धित सभी ग्रन्थो को स्वय पढ लेना चाहिए अथवा तज्ज्ञ (विशेषज्ञ) पुरुषो की मदद से उन्हे समझ लेना चाहिए। (१०) उपर्युक्त छ द्रव्य तथा नौ तत्त्वो के सयोगप्रयोजन से इस अनादिकाल से चलो अाती हुई विश्वरचना मे जो कुछ भी होता है उसमे जैन दार्शनिको ने पाँच कारण प्रयोजक रूप बतलाये है । ये पांच कारण निम्नानुसार है - (क) काल.-इस 'काल' कारण से हमे 'वस्तु अथवा कार्य का परिपक्व या अपरिपक्व समय' ऐसा अर्थ समझना चाहिये। (ख) स्वभाव ~~यहाँ पर 'स्व-भाव' ऐसी व्युत्पत्ति है । अर्थात् मनुष्य या जानवर का स्वभाव नहीं बल्कि प्रत्येक वस्तु का अपना स्वभाव, जिसे हम 'सहज-धर्म' नाम से भी पहचान सकते है। (ग) भवितव्यता.-इसका दूसरा नाम नियति भी है।
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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