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________________ इसका अर्थ 'कर्म द्वारा बना हुआ प्रारब्ध' नही होता । यह तो एक अनादि-अनत और स्वतत्र कारण है। (घ) प्रारब्ध ---इसका दूसरा नाम 'कर्म' भी है । व्यक्तिगत-तथा सामुदायिक कर्मो द्वारा जो बनता है सो प्रारब्ध । (च) पुरुपार्य-इसका दूसरा नाम 'उद्यम' भी है । जीवचैतन्य जो उद्यम अथवा पुरुपार्य करता है सो। जैन तत्त्वज्ञान यह मानता है कि जब तक ये पाँचो कारण इकट्ठ नही होते तब तक कुछ भी कार्य नहीं होता । इम विपय मे विशेप चर्चा हम आगे चल कर करेंगे। यहाँ तो केवल सक्षिप्त व्याख्या ही दी गयी है । (११) यह सब, अर्थात् जो कुछ भी ऊपर बतलाया गया है वह तथा दूसरी अनेक वाते समझने के लिये जिस जान की श्रावश्यकता हे उसे जैन-दार्गनिको द्वारा पाँच विभागो मे बाँटा गया है । उनके निम्नलिखित पाँच अलग-अलग नाम दिये गये है। (१) मतिजान (२) श्रुतनान, (३) अवधिज्ञान (४) मन पर्यवज्ञान (५) केवलज्ञान । इस पाँच प्रकार के ज्ञान के सम्बन्ध मे साधारणतया विशेष जानकारो पागे के पृष्ठो मे उचित स्थान पर हम प्राप्त करगे। (१२) उपरिनिर्दिष्ट ज्ञान वास्तव मे जान ही है, प्रज्ञान नही, यह प्रमाणित करने के लिये तथा उसे समझने-समझाने के लिये जैन-गास्त्रज्ञो ने प्रत्यक्ष पीर परोक्ष दो प्रमाण बतलाये है । प्रमाण से तात्पर्य हे साधार, सबूत । यहाँ पर प्रत्यक्ष प्रमाण के साव्यवहारिक और पारमाथिक दो विभाग है । जव
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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