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________________ ४०५ मनुष्य मन्त्रसिद्धि की कामना शुभ हेतु से करता है, या अशुभ अथवा अशुद्ध हेतु से यह बडे महत्त्व का प्रश्न है। अशुभ हेतु से किये हुए कार्य मे श्रद्धा, एकाग्रता तथा दृढता हो तो काम भले ही बन जाता है, परन्तु उसका परिणाम दीर्घकाल तक निभ नही सकता । इसके अतिरिक्त, इस प्रकार की सिद्धि अन्त मे उसका खुद का भी अहित ही करती है, उसको ही अधोगति के गहरे गर्त मे धकेल देती है; जव कि शुभ हेतु से की गई मत्रसाधना अपने साधक को उत्तरोत्तर शक्ति देतो रहती है और साथ ही उसे निरतर कल्याण के पथ पर भो अग्रसर करती है। यदि कोई मनुष्य-अपनी किसी आपत्ति को दूर करने के लिए, कुटुम्ब के पालन के लिये या भौतिक आवश्यकताओ के लिए मत्र साधना करे तो हम उसे शुभ नही कह सकते; परन्तु वह अशुभ भी नही कहलाएगी। 'शुभ है ।' और 'अशुभ नही है ।'-इन दो वाक्यो के अर्थ मे वडा अन्तर है । किन्तु जो हेतु अशुभ नहीं है, उनको मत्र साधना के लिए अनिष्ट नहीं माना गया। जव तक मनुष्य पराया या अपना कल्याण चाहता हुआ प्रवृत्तियाँ करता रहे, उसमे दूसरे किसी को पीडा अमगल या दुख पहुंचाने की वृत्ति न हो, तबतक हम उसके हेतु को 'अशुद्ध' नही कह सकते । यहाँ जब कि हमने अशुभ हेतुनो की, और जो अशुभ नही है, उन हेतुनो की चर्चा की है तो अव इस बात का भी थोडा सा विचार कर ले कि शुभ अथवा शुद्ध हेतु किसे कहते है। ज्यो ज्यो हम जीवन के हेतु अथवा 'ध्येय' के विषय मे
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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