SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 388
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७० देकर लकडी ठोकता ठोकता आगे बढता है। हम गाँव और घर की ओर लौटते है। ___ वह मुसाफिर तो चला जायगा, परन्तु हमारे हृदय मे एक कसक जरूर रह जाएगी कि 'उसे राजमार्ग तक पहुंचाया होता तो अच्छा होता।' यह कसक रह जाय तो फिर भी ठोक है, परन्तु यदि हमारे हृदय मे ऐसा कोई भाव जाग्रत ही न हो तो उमसे लापरवाही के कारण हमारा अपना भी अहित होगा क्योकि वहाँ हम दया भाव के साथ साथ कर्तव्य मे भी चुके है। इसी तरह जब जब हम अपने कर्तव्य से चूकते है तब तब उससे दूसरे का नुकसान भले न भी होता हो, हम अपना तो अहित ही करते है । यहाँ हमे 'स्व' और 'पर' का अन्तर समझ मे आएगा । 'कानून की परिभापा मे Ignorance of law is no excuse 'कानून का अजान कोई वहाना-~क्षम्य कारणनहीं है । हमारी कानून की दलील वहाँ नही चलती। परिणाम भोगना ही पड़ता है। उसी तरह कर्म और आत्मा के नियम भी दृढ है । हम अनजान मे भी जो अपराध करते है उसका फल अवश्य मिलता है । हेतु के अस्तित्व पर, अनस्तित्व पर, मन्दता या तोव्रता पर उसके परिणाम के न्यूनाधिक प्रमाण का आधार रहता है, इतना जरुर है । इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि जब जब हम अधर्म य अनिच्छनोय आचरण करते है, तब उसके द्वारा हमारे अपने ऊपर जिसका प्रभाव पडे ऐसा हिंसात्मक कार्य ही हमारे हाथो होता है। हमे रास्ते मे कोई अच्छी कहानी की किताब मिली। किसी की गिर पडी थी हमने ले ली। इसके बाद वह पुस्तक
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy