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________________ ३७१ उसके मालिक को वापस मिल जाय ऐसा प्रयत्न हमे करना ही चाहिये । यदि न करे तो परायी वस्तु उठाकर हम अपना ही अहित करते है। 'स्व' और 'पर' हिमा का यह सारा विषय भली भांति समझने योग्य है। इसकी जानकारी जैन साहित्य मे मिलेगो । खास कर 'जीवविचार' 'नवतत्त्व' और 'कर्मग्रन्थ' पढ लेने से बहुत लाभ होगा। इस प्रकार हम देखते है कि पूर्णतया 'अहिसक' जीवन व्यतीत करने मे प्रयत्नशील रहना ही जीवन को नीव मे से मुन्दर बनाने का प्रथम उपाय है । दूसरी बात सत्य मे सम्बन्धित है । सत्य का अर्थ है, असत्य या अयोग्य कथन या विचार न करना । असत्य मे भी हिंसा की बात आती है। हमारे असत्य वचन अथवा असत्य आचरण से किसी अन्य को दुख अवश्य होगा। यह तो हुई परहिंसा ओर इसमे हमे जो कर्मवन्धन होगा वह है स्वहिसा।' 'अस्तेय' अर्थात् चोरी न करना। यह 'चोरी' शब्द कानूनी भाषा मे जिसे 'चोगे' कहते है, उसी तक सीमित नहीं है। इसका विरोप अर्थ यह कि, जो हमारा नहीं है, न्यायपूर्वक हमारा नही है, उसे स्वीकार न करना । जो न्यायपूर्वक हमारे अधिकार का हो उसके अतिरिक्त कुछ भी लेना 'स्तेय' (चोरी) माना गया है। यहा भी हिसा-अहिंसा की बात आती है। दूसरे के हक का लेने मे दूसरे को जो दुख पहुँचता है मो हिमा-परहिमा । इस प्रकार लेने मे हमे जो कर्मबन्धन होता है मो 'स्वहिमा' है ! _ 'ब्रह्मचर्य' शब्द का अर्थ तो बहुत विशाल है । इस आचार का पालन ससारी मनुष्यो के लिये सभव नहीं है। परन्तु
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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