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________________ के लिए वे एक मात्र कर्म को ही कारण मानने है । इस विपय पर अनादि काल से लिखा गया है, लिना जा रहा है और लिया जाता रहेगा। ऐमा होते हुए भी कर्म के विषय में जो साहित्य उपलब्ध है, उसमे मे जैन दार्गनिको द्वारा प्रस्तुत नाहित्य के समान गहन-गभीर और बिगाल नाहित्य दुनिया भर में कहीं नहीं है। जैन विद्वानो के लिये हए 'कर्मग्रन्थ' पट कर हम दग रह जाते हैं, चकित हो जाते है, उनमें हमे उतना विस्तृत विवरण मिलता है। आज दुनिया भर मे यह तब्य न्त्रीहन हो चुका है कि कर्म के विषय में मूक्ष्म में नूम धानबीन केबल जैन माहित्य में ही मिलती है । कर्म-विज्ञान के विषय में सूक्ष्मानिसूक्ष्म विवरण नीर समस्त तथ्य जैन साहित्य में ही है। " कर्म का आत्मा के माय सम्बन्ध एव कर्म के पुद्गलो की अगम्य और अपार लीला-यह एक ऐमा विराट विषय है कि उसमे मात्र चचुपात करने के लिए भी विशिष्ट योग्यता प्राप्त करना आवश्यक है । हमारा पीर दुनिया का महान नीभाग्य है कि आज भी इस विषय को पूर्णतया समझा मकने वाला साहित्य और उसे बहुत बहुत अच्छी तरह समझे हुए जैन विद्वान मौजूद है। आज यह तथ्य तो सर्वथा मान्य हो चुका है कि 'कर्म' जैसा कुछ है सही, और कर्म के ही कारण सुख दुख, समानता, असमानता आदि का बहुत वडा पालम चल रहा है । ईश्वरवादी महापुरुप जव कहते हैं कि 'राम भरोसे वैठि के सबका मुजरा लेत, जैनी जिनकी चाकरी तैमा तिनको देत ।' तव वे भी कर्म की ही बात कहते हैं । इस दोहे मे 'चाकरी' शब्द कर्म का ही सूचक है।
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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