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________________ २८६ आत्मा और कर्म का सम्बन्ध एक 'सनातन सघर्ष' है । अग्रेजी मे जिसे "Tug of wai' - विपरीत दिशा मे रस्सा खीचने की स्पर्धा कहते है । उस प्रकार का एक खेल आत्मा और कर्म के बीच अनादि काल से खेला जा रहा है । जब आत्मा मोक्ष मार्ग के लिए पुरुषार्थ शुरु करता है, तब से इस खेल का असली प्रारम्भ ग्रमल मे आता है, तभी ध्यान मे आता है । आत्मा स्वय ही कर्म का कर्ता और भोक्ता है । कर्म से मुक्त होने की शक्ति भी आत्मा की अपनी ही शक्ति है । आत्मा स्वय ही सुख और दुख के सभी सवेदन अनुभव करता है । ग्रात्मा इनके कारण भी जान सकता है, परन्तु यह जानने की शक्ति श्रात्मा के अपने कर्मो के द्वारा कुठित हो जाती है । जिन्हे जैन तत्त्वज्ञानी 'प्रावरणीय कर्म' कहते है, उन कर्मों से आत्मा स्वयं ही अपने लिए कठिनाइयाँ उपस्थित करता है । ग्रात्मा खुद ही अपने विकास में, अपने शुद्ध स्वरूप के प्रकटीकररण मे अन्तराय-भूत कर्म करता है, उसके अपने कर्म ही उसके लिए बाधक होते है । किसी बालक को या जानवर को सुई चुभोने पर दुख की जो चीख निकलती है वह केवल शरीर से नही अपितु श्रात्मा से सम्बन्ध रखती है । क्योकि यदि उसका सम्बन्ध आत्मा से न होकर केवल शरीर से ही हो तो निष्प्राण शरीर मे से भी ऐसे सवेदन उत्पन्न होने चाहिए, लेकिन नही उत्पन्न होते । साधारण दियासलाई लग जाने से मनुष्य चिल्ला उठता है, जब कि श्मशान मे सारा शरीर जल कर भस्म हो जाता है, तब वह जरा सा भी नही हिलता डुलता, मामूली
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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