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________________ २७४ हमे जिस विकासक्रम से गुजरना होता है उसमे मन की शक्ति का खिलना और कुछ ऐसे वैसे चमत्कार दिखा सकना स्वाभाविक है। फूल-फल के पेडो के विकासक्रम में जैसे स्वाभाविक अवस्थाएँ होती है, उसी तरह यह भी एक अवस्था या अवस्थाएँ है। यह ध्येय नहीं है, साध्य नहीं है, यह यात्ममुक्ति का साधन भी नही है । यह तो छलने वाली, ठगने वाली तथा ललचाने वाली अवस्था है। यदि यही रुक गये तो वडा खतरा है। इस बात को कैसे समझे ? पहले हमने जो कथन किया है कि 'ज्ञानक्रियाझ्या ज्ञानम्' उसका तात्पर्य यदि हम पूर्णतया समझले तो यह बात पूर्णत. समझ मे आ सकती है । यही कारण है कि हमे सद्-धर्म और सद्गुरु का पालम्बन लेना पड़ता है। यह बालवन लेने के लिए हमे विवेक रूपी ज्ञान की जरूरत होती है। वह ज्ञान-सच्चे ज्ञान का वह सच्चा मार्ग-हमे जैन तत्त्वविज्ञान अनेकान्तवाद और स्याद्वाद बताता है । ____ यह बात 'बाबावाक्य प्रमारणम्' या 'हम कहते है इसलिये मान लो, जैसी नहीं है। हम स्वय योग्य अवलवन द्वारा इसका प्रयोग कर सकते है। हम इसका अनुभव भी कर सकते है। जिसका हमे अनुभव हो वही सच्चा ज्ञान है। यह अनुभव परोक्ष नही, परन्तु प्रत्यक्ष होना चाहिये। इन्द्रियो और मन की सहायता से हमे जो अनुभव होता है सो परोक्ष अनुभव है । जब हम सम्यक् -सच्चे मार्ग पर हो तव भो वह अधूरा अनुभव होता है । पूर्ण अनुभव तो केवल आत्मा के द्वारा, अन्य किसी चीज की-किसी भी माध्यम की सहायता के विना ही हो सकता है । यही अनुभव प्रत्यक्ष है, दूसरा नही।
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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