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________________ २७२ कान, अपनी नाक, अपना जीभ पीर अपनी त्वचा होती है। यह सब कुछ सूक्ष्म होता है, अर्थात् इन्द्रियगम्य नहीं है । एकाग्रता प्राप्त करने के जो भिन्न भिन्न मार्ग है, जैसे अलग अलग योग भक्ति आदि उनसे मन की गक्ति का अमीम विकास किया जा सकता है । मन चर्म-चक्षुम्रो की महायता के बिना नाकार तथा स्वरूप को जान सकता है। मन कान की महायता के विना दूर दूर की बातचीत सुन सकता है। मन गन्ध और स्पर्ग भी सबन्धित इन्द्रियो नी महायता के बिना अनुभव कर सकता है। अन्य मनुष्यो के मन मे चल रहे विचारो को भी मन पढ सकता है। मन की अद्भुत शक्ति का विकास करने वाला मनुष्य कभी कभी इस विश्व में आसानी से 'महात्मा' बन जाता है । ऐसे शक्तिशाली महानुभाव के इर्द गिर्द भक्त-मडल भी बडी तेजी से इकट्ठा हो जाता है । सामान्य जन-समूह की सासारिक सुखो की कामना ऐसे महात्मानो के आत्म-विकास का मार्ग अवरुद्ध कर बैठ जाय तो इसमे आश्चर्य ही क्या ? अपनी प्राप्त की हुई सिद्धियो के विषय मे अहभाव-जनित भ्रान्ति के कारण ऐसे महात्मा भी कभी कभी 'धर्म पवर्तक' से लेकर 'स्वयशभु, स्वयसिद्ध, हाजर इमाम और भगवान' तक के विरुदो मे भटक जाते है । जो लोग इस भ्रान्ति मे नही भटक जाते, भटके हो तो बाहर निकलते है और मन को छोड कर जो लोग शुद्ध प्रात्मा के क्षेत्र मे प्रवेश प्राप्त करने के लिए कार्यसाधक बनते है, उन्ही के लिए आगे वढने का और केवलज्ञान की उच्च भूमिका तक पहुँचने का मार्ग खुलता है । वाकी सब भव-अटवी मे भ्रमण करते रहते है।
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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