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________________ [ १८६ ] वस्तु एक ही हो, फिर भी उसके भिन्न-भिन्न स्वरूप बुद्धि मे उत्पन्न होते ही है। इस भिन्न-भिन्न प्रकार की बुद्धि को हम 'नयबुद्धि' कह सकते है। प्रत्येक वस्तु अनेक गुण-धर्मात्मक है । नय की मदद से इन भिन्न-भिन्न गुण-धर्मो का जो जान होता है वह भी भिन्नभिन्न है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी शक्ति तथा कक्षा Calibre and catagony के अनुसार उसे समझ सकता है । पिछले पृष्ठो मे हमने जो चार प्रमाण देखे है वे वस्तु को समग्ररूप मे प्रकट करते है, इसलिए कोई मतभेद उपस्थित नही होते, परन्तु वस्तु को जब अशत देखा जाता है तव वहाँ मतभेद को अवकाश रहता है। इन मतभेदो का निवारण करने का साधन यह 'नय-ज्ञान' है। हमारी 'मनोगत समझ' जिसे जैन तत्त्वज्ञान की परिभाषा मे 'अध्यवसाय' कहते हैं, हमारा एक अभिप्राय है । यह अभिप्राय दो प्रकार से प्रवर्तमान होता है-शब्द द्वारा तथा अर्थ द्वारा। शब्द दो प्रकार के होते है---एक रूढिगत, जो रूढि और परपरा से प्रयुक्त होता है, दूसरा शब्द व्युत्पत्ति से अर्थात् व्याख्या से बना होता है । इसी प्रकार अर्थ के भी दो भेद है, एक सामान्य (Cornmon) और दूसरा विशेष (Specific)। हमने जिन सातो नयो का परिचय प्राप्त किया है, उनमे पहले चार-नैगम, सग्रह, व्यवहार, और ऋजुसूत्र- अर्थप्रधान नय है । अन्तिम तीन-शब्द, समभिरूढ, और एवभूत शब्दप्रधान नय है। नैगम नय हमारे समीप वस्तु के सामान्य तथा विशेष, ये दोनो अर्थ प्रस्तुत करता है । सग्रह नय केवल सामान्य अर्थ ही
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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