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________________ [ १८५ ] इसकी सामान्य व्याख्या । यह समझ भी स्वतन्त्र-निरपेक्ष-नही है, अन्य नयो से सापेक्ष ई, अपेक्षायुक्त है, यह बात भूलनी नही चाहिए, तभी अनेकान्तवाद की मर्यादा मे रहा जा सकता है । जैसा कि ऊपर बताया गया है, ये सातो नय एक एक से अधिक विशुद्ध है । उत्तरोत्तर नयो का विषय सूक्ष्म है, किन्तु एक ही वस्तु को देखने और समझने के ये भिन्न-भिन्न पहलू है । ये सातो पहलू इकट्ठे होने पर वस्तु की सम्पूर्ण जानकारी मिलती है। ये सातो पहलू मिलने से वस्तु बनती है । ये सातो नय मिलकर जो श्रुत बनाते है उसे 'प्रमाणश्रुत' कहते है । इसमे विशेष ध्यान रखने की बात यह है कि ये सभी नय परस्पर सापेक्ष होने पर ही सत्य है, अन्यथा मिथ्या है, दुर्नय है । ये सातो नय अपने-अपने स्थान पर अमुक निश्चित बस्तु बताते हैं, परन्तु दूसरे नय की बताई हुई वस्तु का खडन करे तो 'नयाभास' अथवा 'दुर्नय' बन जाय । ___वस्तु के अन्य स्वरूपो का खडन किये विना जो अपनी मान्यता को स्वीकार करता है वह मुनय है। अन्य नय से सापेक्ष रहकर, दूसरी अपेक्षाओ के अधीन रहकर जब वह वस्तु का यथार्थ स्वरूप बताता है तव उसकी गणना 'स्याद्वाद श्रुत' मे होती है। यहाँ उम 'म्यात्' शब्द को हम एक बार फिर याद कर ले । इस नय का प्रयोजन अन्य नयो की सापेक्षता सूचित करने के लिये है। परस्परविरुद्ध धर्मों का एक ही वस्तु मे स्वीकार करने के लिए-पूरी समझदारी के माथ स्वीकार करने के लिए ही, इस स्याद्वाद सिद्धान्त को आवश्यकता है । यही जैन दर्शन की अपूर्वता है ।
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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