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________________ ११५ होता है । पापी, दुराचारी, व्यभिचारी, क्रोधी, शराबी, चोर यदि समान कक्षा के अवगुण एकत्रित होते हैं तो उसे भी 'समन्वय' कहा जा सकता है । भिन्न भिन्न भाव प्रकट करने वाले एक ही श्रेणी के गुणो या अवगुणों का अलग अलग समन्वय किया जा सकता है, परन्तु परस्पर विरोधी गुणो और अवगुण का ( इकट्टा ) समन्वय नही किया जा सकता । एक ही वस्तु मे जो अनेक परस्पर विरोधी गुणधर्म दिखाई देते हैं- जो कि श्रनेकातवाद ने बताये हैं-वे बाहर से आये हुए या लाकर इकट्ठे किये हुए नहीं बल्कि प्रत्येक वस्तु के अपने मूल और अन्तर्गत स्वभाव-स्वरूप ही उसमे विद्यमान होते है । यदि यह बात भलीभांति याद रहे तो हम समन्वय या समाधान के भ्रम मे नही पडेगे । यह बात पुन सिद्ध करती है कि स्याद्वाद कोई अधूरा, मदिग्ध या सन्देह वाचक नही, बल्कि पूर्ण, स्पष्ट प्रसदिग्ध एव निश्चित तत्त्वज्ञान है । वस्तु के परस्पर विरोधी गुणधर्मो को पृथक् कर दिखानेवाले ग्रनेकातवाद के तत्त्वज्ञान का एक विशिष्ट कोष्ठक स्यादवाद है । यह इन्द्रियग्राह्य नही, मनोग्राह्य है। यदि ये सब बाते पूर्णतया समझ मे या जॉय तो हम तुरन्त ही कह देगे कि 'स्यात्' शब्द को समझदारी के साथ उपयोग करके वोले हुए वाक्य पद और उसकी इस दृष्टि से प्राप्त बुद्धि ही असली ज्ञान है, सम्यग्ज्ञान है, इसके सिवा दूसरे जो 'ज्ञान' कहलाते हो वे 'मिथ्याज्ञान' है । 'स्यात्' शब्द का अर्थ ग्रव हम भलीभांति समझ गये है । यह ग्रर्थ समझने के बाद ' स्यादवाद' शब्द के विषय मे भी हमे पर्याप्त समझ ग्रा गई है ।
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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