SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११४ कुछ बलिदान करने या छोड देने की बात इसमें नही है । स्यादवादी जब उक्त महाशय की उदारता बताने के लिये 'स्यात् ' शब्द का प्रयोग करता है, तब वह उनकी कमी को क्षति पहुँचाकर उसकी उदारता की प्रशसा नही करता, उसी तरह जब स्यादवादी 'स्यात्' शब्द के प्रयोग के साथ उनकी अनुदारता की बात करेगा तब भी उनकी उदारता की ग्रवगणना करके ऐसा नही करेगा उसकी बात में राग, द्वेष, या पक्षपात नही ना सकता । परन्तु वह एक वस्तु का जिस स्वरूप में दर्शन करता है, उसका वर्णन उस वस्तु के दूसरे स्वरूपो को सदर्भ मे रख कर ही करेगा । इस प्रकार दूसरी एक बात यहाँ स्पष्ट होती है कि स्यादवाद किसी एक ही दृष्टिबिन्दु ( View point ) का निदर्शन नही करता, वह तो अनन्त दृष्टिविदुओ का एक निष्पक्ष एव तटस्थ 'ग्राहक' ' है । श्रागे चलकर हम जो सात प्रकार के नय की चर्चा करने वाले है, वह नय तो स्याद्वाद के विराट् स्वरूप का एक ग्रा मात्र है | इसलिए स्यादवाद को 'सिंधु' और नय को 'बिंदु' को उपमा दी जाती है । ऐसे अनेक 'नयविदु' (Reservoirs ) मिलकर एक 'स्याद्वादसिंधु' (Ocean) बनाते है । फिर यह प्रश्न उठेगा कि "इसे अनेक विदुओ का समन्वय क्यो न कहा जाय ? ' समन्वय' शब्द का प्रयोग किस प्रकार होता है सो ऊपर सक्षेप में कहा जा चुका है । इस बात को जरा विस्तार से समझ लीजिये । पुण्यगाली, भाग्यशाली, उदारचरित, क्षमावान्, सयमी आदि समान कक्षा के गुरण जब एकत्रित होते है तव उस क्रिया के लिये 'समन्वय' शब्द प्रयुक्त
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy