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________________ ६८ है । ऐसे लोगो की ओर से, जिन्होने अनेकातवाद को पूर्ण रूप से नही समझा, एक प्रश्न यह पूछा जाता है कि " यह बात तो हमारे धर्म मे भी बताई गई है । जैन तत्त्वज्ञानियों ने भला इसमे नई बात कौन सी कही है ? यही पर, जैन दर्शन को विशिष्टता का हमे दर्शन होता है । प्रत्येक वस्तु मे अनेक गुरण धर्म होते है, यह दिखाने भर से जैन तत्त्वज्ञान को 'अनेकातवाद' नाम नही दिया गया। जैन दर्शन ने यह चीज़, यह बात सावित करके बताई है । इसके अतिरिक्त, प्रत्येक वस्तु में 'परस्पर विरोधी' तत्त्व एक साथ मिले हुए हैं, और जैन तत्त्वज्ञान का यह कहना है कि कोई भी वस्तु केवल ' अनेक गुणधर्मात्मक' नहीं बल्कि 'परस्पर विरोधी' अनेक गुणधर्मो से युक्त है । ये जो विरोधी गुणधर्म है वे एकात दृष्टि द्वारा नजर नहीं था । श्रनेकांत दृष्टि द्वारा ही हम उन्हे देख और समझ सकते हैं । जैन तत्त्वज्ञान को ' अनेकातवाद' को यही तो विशिष्टता है । और यह विशिष्टता कोई छोटी सी तो है नहीं ! जहा तक तत्त्वज्ञान का सम्वन्ध है यह एक महान् सिद्धि है । इसी कारण अनेफातवाद को 'तत्त्वशिरोमरिण' की उपाधि दी गई है । कोई एक वस्तु सत् है, नित्य है और एक है, इसलिये वह अनेक धर्मो से युक्त तो है लेकिन इस तरह अनेक धर्मात्मक होने के कारण ही उमे अनेकानात्मक नही कहा जा सकता। लेकिन सत् और असत् नित्य और ग्रनित्य एक और अनेक ऐसे परस्पर विरोधी गुणधर्मो को वह एक समय अपने मे समा लेती है और इसी कारण वह 'ग्रनेकातात्मक'
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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