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________________ 57 विदेशों में जैन धर्म एक प्रतिमा लगभग तीन सौ वर्ष पहले गंगानी जैन तीर्थ में विराजमान थी ऐसा उल्लेख मिलता है। सम्राट चन्द्रगुप्त के त्रिरत्न चैत्य वृक्षा. दीक्षा वृक्ष आदि जैन सांस्कृतिक प्रतीकों से युक्त सिक्के भी प्राप्त हुए हैं। चन्द्रगुप्त मौर्य ने जीवन के अन्तिम समय में जैनाचार्य भद्रबाहु से दिगम्बर जैन मुनि की दीक्षा ग्रहण की थी और श्रवण वेलगोला (कर्नाटक) में भद्रबाहु के साथ तप किया था। किन्तु डा. फ्लीट तथा कतिपय अन्य विद्वानों ने इसकी प्रामाणिकता में सन्देह प्रकट किया है। विन्सेन्ट ए. स्मिथ ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक तसल भ्पेजवतल वदिकप के द्वितीय संस्करण में इस विषय की दिगम्बर जैनों की मान्यता का खण्डन किया है, किन्तु तृतीय संस्करण में विन्सेन्ट ए. स्मिथ ने इसकी सत्यता को स्वीकार कर लिया है।63 . छठी शताब्दी ईसा पूर्व में आचार्य यतिवृषभ ने अपने ग्रन्थ तिलोयपण्णति में लिखा है कि मुकुटधर राजाओं में सबसे अन्तिम राजा चन्द्रगुप्त ने जैन मुनि की दीक्षा ली। उसके बाद किसी मुकुटधर राजा ने जैन मुनि की दीक्षा नहीं ली।64 आचार्य हरिषेण (विक्रमी संवत् 988) ने अपने कथाकोष नामक ग्रंथ में लिखा है कि भद्रबाहु को ज्ञात हो गया था कि यहां एक द्वादशवर्षीय भीषण दुर्भिक्ष पड़ने वाला है। इसलिए उन्होंने समस्त संघ को बुलाकर आदेश दिया कि वे दक्षिण देश चले आएं, मैं स्वयं यहीं ठहरूंगा। तब चन्द्रगुप्त ने विरक्त होकर भद्रबाहु स्वामी से जिन दीक्षा ली। फिर चन्द्रगुप्त मुनि, जो दस पूर्वियों में प्रथम थे, विशाखाचार्य के नाम से जैन संघ के नायक हुए। भद्रबाहु की आज्ञा से वे संघ को दक्षिण के पुन्नाट देश में ले गए। इस प्रकार, रामल्य, स्थूलभद्र. भद्राचार्य अपने-अपने संघों सहित सिन्ध आदि देशों को भेज दिए गए और स्वयं भद्रबाहु स्वामी उज्जैन के भाद्रपद नामक स्थान पर रह गए. जहां उन्होंने समाधिमरण प्राप्त किया।66 ___आचार्य रत्ननन्दी ने भद्रबाहु चरित्र में स्वप्न माध्यम से इसी बात का समर्थन किया है। इसी प्रकार, ब्रह्मचारी मवेभिदत्त रचित आराधना कथाकोष में ऐसी ही कथा उल्लिखित है167 पुण्याश्रव कथाकोष में भी इसी से मिलता-जुलता विवरण मिलता है।68 आचार्य हेमचन्द्र ने अपने परिशिष्ट-पर्व में चन्द्रगुप्त मौर्य को जैन श्रावक तो लिखा है, किन्तु जैन साधु की दीक्षा लेकर दक्षिण जाने को कोई
SR No.010144
Book TitleVidesho me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1997
Total Pages113
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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