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________________ 52 विदेशों में जैन धर्म उल्लेख नहीं किया है। • अवणवेलगोल मिसूर) से प्राप्त अनेक संस्कृत और कन्नड़ के शिलालेखों से भी इसी बात की पुष्टि होती है। इन शिलालेखो को प्रकाशित करते हुए. लेविस राइस ने लिखा है कि इस स्थान पर जैनों की आबादी श्रुतकेवली अदबाहु द्वारा हुई और उसी स्थान पर उनकी मृत्यु भी हुई। अन्तिम समय में सम्राट अशोक का पितामह सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य उनकी सेवा करता था। ग्रीक इतिहासकारों ने चन्द्रगुप्त का नाम सैण्ड्राकोट्टस लिखा है।70 चन्द्रगिरि पर्वत पर अनेक शिलालेख प्राप्त हुए है, उनसे इन्हीं बातों की पुष्टि होती है। 128 इन शिलालेखो में से मुख्य शिलालेख में द्वादश वर्ष के दुर्भिक्ष तथा उसके बाद उज्जैन से 12000 मुनियों के संघ का दक्षिण आगमन आदि सब बातें लिखी हैं। ये शिलालेख विविध समयों के हैं। अतः प्राचीनता के कारण इन की प्रामाणिकता में सन्देह नहीं किया जा सकता। कुछ विद्वानों का यह मत है कि पुण्याश्रव कथाकोष में पटना के राजाओं के वृत्तान्त में पहले मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त का इतिहास लिखा है, उसके अनुसार, श्रवणबेलगोला के साथ जिस चन्द्रगुप्त का सम्बन्ध है. वह अशोक का पितामह चन्द्रगुप्त मौर्य नही, बल्कि उसका पोता सम्प्रति मौर्य (चन्द्रगुप्त मौर्य द्वितीय) है। राजावली कथा में भी यही कथा लिखी है। यहां पर विचाराधीन चन्द्रगप्त अशोक का पितामह न होकर उसका पौत्र है। वहां यह भी लिखा है कि चन्द्रगुप्त अपने पुत्र सिंहसेन को राज्य देकर भद्रबाहु के साथ जैन मुनि बन गया और दक्षिण की ओर चला गया।72 चन्द्रगुप्त नाम के कई सम्राट हुए हैं तथा भद्रबाहु भी अनेक हुए हैं जिन पर अन्य अनेक विद्वानों ने भी यथा प्रसंग सविस्तार प्रकाश डाला है। मौर्य सम्राट अशोक के पोते सम्राट सम्प्रति (प्रिय दर्शन) ने वस्तुतः सम्राट अशोक की भांति देश-विदेशो मे अहिसा धर्म (जैन धर्म) का झडा लहराया था। यह प्रसिद्ध है कि मौर्य सम्राट सम्प्रति ने अपने जीवन काल में देश विदेशों में सवा लाख नए जैन मन्दिरों का निर्माण कराया था; दो हजार धर्मशालाये बनवाई थी, ग्यारह हजार वापिकायें खुदवाईं थीं; पक्के घाट बनवाये थे; सवा करोड़ जिन प्रतिमाओं की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा कराई थी तथा छत्तीस हजार जैन मन्दिरों के जीर्णोद्धार कराये थे। उसने
SR No.010144
Book TitleVidesho me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1997
Total Pages113
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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