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________________ 50 विदेशों में जैन धर्म अधिकार हो गया। इस प्रकार, प्रायः सम्पूर्ण भारत महादेश एवं मध्य एशिया पर जैन सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य का एकछत्र राज्य स्थापित हो गया। वस्तुतः चन्द्रगुप्त मौर्य 322 ईसा पूर्व में राज्यगद्दी पर बैठा और 298 ईसा पूर्व में अपनी मृत्युपर्यन्त उसने 22 वर्ष राज्य किया। उसके सम्पूर्ण साम्राज्य में देश विदेशों में प्रायः सर्वत्र जैन धर्म का व्यापक प्रचार था और जैन मन्दिर तथा जैन स्तूप विद्यमान थे। सिकन्दर के भारत पर आक्रमण के समय यूनानियों ने गाधार, तक्षशिला आदि जनपदों के नगरों में तथा उनके निकटवर्ती प्रदेशों एवं सम्पूर्ण पंजाब और सिन्ध में यंत्र तत्र सर्वत्र हजारों निग्रंथ श्रमणों को विहार करते हुए देखा था, जिनका उन्होंने जिम्नोसोफिस्ट, जिम्नटाई, जेनोई आदि नामों से उल्लेख किया है। इन शब्दों से आशय दिगम्बर एवं अन्य प्रादेशिक जैन मुनियों, जिनकल्पी, स्थविरकल्पी, अल्पवस्त्रधारी श्रमणों से है । सिन्धुघाटी में कुछ ऐसे ही जैन साधुओं का उन्होंने ओरेटाई के नाम से भी उल्लेख किया है। उपर्युक्त जैन साधुओं मे से कुछ को हिलावाई (वनवासी) नाम भी दिया गया है। श्वेताम्बर जैन साधुओं में एक वनवासी गच्छ भी था। वे प्रायः जंगल में रहते थे। इसी गच्छ के दो साधुओं मंडन और कल्याण विज्य ने स्वयं सम्राट सिकन्दर से भी साक्षात्कार किया था। सिकन्दर के आग्रह पर मुनि कल्याण विजय बाबुल भी गये थे, जहां उन्होंने समाधिमरण प्राप्त किया था। यूनानी लेखकों ने जैन मुनियों, ऋषभदेव, चक्रवर्ती सम्राट भरत आदि से सम्बन्धित अनुश्रुतियों का भी उल्लेख किया है। यूनानी सम्राट सिकन्दर के समय से पहले तथा बाद में भी गांधार, पंजाब, सिन्ध, तक्षशिला आदि जनपदों में सर्वत्र जैन धर्मानुयायी विद्यमान थे। चन्द्रगुप्त दृढ़ जैन धर्मी था। बौद्ध साहित्य में उसे व्रात्य क्षत्रिय जाति का युवक सूचित किया गया है। व्रात्य शब्द का प्रयोग ॠग्वेद और अथर्ववेद में जैन धर्म के श्रमणों और आर्हतों के लिए किया गया है। यूनानी लेखकों ने व्रात्यों का उल्लेख वेरेटाई के नाम से किया है। आचार्य हेमचन्द्र ने भी परिशिष्ट पर्व में चन्द्रगुप्त को जैन धर्मानुयायी ही कहा है। उसके द्वारा अनेक जैन मन्दिरों के निर्माण तथा जैन तीर्थकरों की प्रतिमाओं को स्थापित किये जाने के उल्लेख मिलते हैं। उसके समय की तीर्थकर की
SR No.010144
Book TitleVidesho me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1997
Total Pages113
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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