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________________ 21 विदेशों में जैन धर्म कि सब कुछ त्याग कर वनों में निवास और तप करने वाले सन्यासियों, योगियों और यतियों की परम्पराएं तब तक समाज में सुस्थापित हो चुकी थीं तथा समाज का पूज्य अंग बन चुकी थीं। इन मुद्राओं से प्रकट होने वाला धर्म और जीवन-शैली वेदों से प्राप्त आर्य धर्म और दर्शन से सर्वथा भिन्न है। इह-लोक्रपरक होने के कारण प्रवृत्तिपरक वैदिक उपासना और जीवन शैली तो वैदिक साहित्य में विस्तार से अभिलिखित हो गई. किन्तु इहैषणा रहित सर्वस्वत्यागियों की जीवन-शैली का, युद्धों में उनकी उत्तरोत्तर पराजय के कारण, मात्र उल्लेख ही हो पाया। वेदो के अन्तिम अशों, आरण्यकों और उपनिषदों में यह भेद उभर कर आया है। श्रमण शब्द का इस रूप में उल्लेख भी पहले पहल वृहदारण्यक उपनिषद मे ही हुआ है और वहा इसका अर्थ कठोर तपस्वी हुआ है। सिन्धुघाटी की श्रमणधर्मी व्रात्य-असुर-पणि-नाग-द्रविड-विधाधर सभ्यता ही मध्य एशिया की सुमेर. अस्सुर एव बाबुली सभ्यताओ की तथा नील घाटी की मिश्री सभ्यता की जननी और प्रेरक थी। वस्तुतः आदि महापुरुष ऋषभदेव विश्व सस्कृति, सभ्यता और अध्यात्म के मानसरोवर हैं जिनसे संस्कृति और अध्यात्म की विविध धाराये प्रवर्तित हुई और विश्व भर मे पल्लवित, पुष्पित और सुफलित हुईं। विश्व मे फैली प्राय. सभी अध्यात्म धाराये उन्हे या तो अपना आदि पुरुष मानती है या उनसे व्यापक रूप से प्रभावित है। वे सभी धर्मों के आदि पुरुष है। यही कारण है कि वे विविध धर्मों के उपास्य, सम्पूर्ण विश्व के विराट् पुरुष और निखिल विश्व के प्राचीनतम व्यवस्थाकार है। वैदिक सस्कृति और भारतीय जीवन का मूल सांस्कृतिक धरातल ऋषभदेव पर अवलम्बित है। भारत के आदिवासी भी उन्हे अपना धर्म देवता मानते है और अवधूत पथी भी ऋषभदेव को अपना अवतार मानते है। ऋषभदेव के ही एक पत्र "द्रविड" को उत्तरकालीन द्रविडों का पूर्वज कहा जाता है। सम्राट भरत के पुत्र अर्ककीर्ति से सूर्यवंश, उनके भतीजे सामयश से चन्द्रवंश तथा एक अन्य वशज से कुरुवंश चला। ऐसा प्रतीत होता है कि ब्रह्मा समेत सारे प्रजापति प्राचीन श्रमण तपस्वी ही थे और अथर्ववेद भी श्रमणों द्वारा दृष्ट मंत्र-संग्रह था, जो बाद मे वेदत्रयी तथा पुराणों में शामिल किया गया। सन्यास आश्रम तथा आत्मा
SR No.010144
Book TitleVidesho me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1997
Total Pages113
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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