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________________ 20 विदेशों में जैन धर्म एशिया के अनेक स्थलों की खुदाई से तथा सोवियत रूस से जेराब्सान नदी के तट पर सराज्म में हुई खुदाई से पूर्णतया उद्घाटित और उद्भाषित हो चुकी है। उस युग के भारत जनों ने जिस अति समृद्ध महान नागरिक सभ्यता का विकास किया था, उसके उज्जवल प्रतीक उस युग के भारत के हडप्पा, मोहनजोदडो और कालीबंगा तथा सोवियत रूस के सराज्म जैसे नगर सभ्यता केन्द्र हैं। उन्होंने कृषि, उद्योग, व्यापार, वाणिज्य. विदेश व्यापार आदि का पूर्ण विकास किया था। यह सभ्यता भारत से लेकर मध्य एशिया होती हुई सोवियत रूस के सराज्म क्षेत्र तक फैली हुई थी। उस युग में सिन्धु घाटी की बस्तियों का दक्षिणी तुर्कमानिया के साथ व्यापारिक सम्बन्ध था। खुदाई से प्राप्त सीलों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि उनके आराध्य दिगम्बर योगीश्वर ऋषभदेव थे जो पदमसाम और कायोत्सर्ग मुद्राधारी थे तथा सब जीवों के प्रति समताभावी थे। आराध्य देवों की मूर्तियों के सिर पर आध्यात्मिक उत्कृष्टता और गौरव का प्रतीक त्रिरत्न सूचक श्रृगकिरीट है। वे वृत्र या अहिनाग वंशी थे तथा शिश्नदेव या केशी वृषभदेव के उपासक थे, जैसा कि ऋग्वेद के केशी सूक्त तथा अन्य सन्दर्भो से विदित है। उनका धर्म व्रात्यधर्म था और उनका आराध्य एकव्रात्य था, जैसा कि अर्थववेद के व्रात्यकाड से स्पष्ट है। रुद्र भी व्रात्य थे, जैसा कि यजुर्वेद के रुद्राध्याय में आये “नमो व्रात्याय' से प्रकट है। शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद मे भी इसी सन्दर्भ में "बात" शब्द का प्रयोग हुआ है। ये व्रात्य भारत के उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम मे सर्वत्र विद्यमान थे। इक्ष्वाकु, मल्ल, लिच्छिवि, काशी, कोशल, विदेह, मागध और द्रविड आदि द्रात्यों के अन्तर्गत थे। ऋषभदेव के एक पुत्र का नाम द्रविड था जिसके नाम पर ही श्रमण धर्मी आत्ममार्गी द्रविडों का यह नाम पडा था। व्रात्य धर्म का मुख्य केन्द्र पूर्व भारत था। यह स्थिति प्रागार्य प्राग्वैदिक युग मे 4000 ईसा पूर्व मे अर्थात् सिन्धु सभ्यता के काल में विद्यमान थी। प्रागैतिहासिक काल के व्रात्यों और श्रमणों का प्रभाव अथर्ववेद में भी परिलक्षित है. जो ऋग्वेद से भी प्राचीन और सर्वप्रथम रचित वेद है। . भारत की ज्ञात सभ्यताओं में सर्वाधिक प्राचीन सभ्यता सिन्धु सभ्यता मानी जाती है। उस काल की मुद्राओं पर उत्कीर्ण चित्रों से यह स्पष्ट है
SR No.010144
Book TitleVidesho me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1997
Total Pages113
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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