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________________ ८. उत्कल की संस्कृति में जैन धर्म उत्कल में अत्यन्त प्राचीनकाल से एक प्रधान धर्मो रूपमें बैनधर्वका प्रचलन है। इस प्राचीन धर्मका प्रभाव उत्कल के सास्कृतिक जीवन में अनेक रूपमें परिलक्षित होता है। इतिहास सेप्रमाणित होता है कि उत्कलके विभिन्न प्रचलोंमें "भंजवंश" का राजत्व था। "भजवश"वाले कोई कोई शैव भी थे और कोई-कोई वैष्णव, फिर भी ऐसा मालूम पड़ता है कि इन लोगों में जैन संस्कृतिका प्रभाव भी अक्षुण्ण था। इस वंशका एक हाम्र शासन केन्दूझर जिला के उखुडा नामक ग्रामसे मिला था, उससे विदित होता है कि "भजवश" के भादि पुरुषोकी उत्पत्ति कोट्याश्रम नामक स्थलमें मयूरके अडेसे हुई थी। सभव है, यह कोट्याश्रम जैन हरिवंश में वर्णित असख्य मुनिजनाध्युषित कोटिशिला ही हो। मयूरके अडेको विदीर्ण करके (मयूरोड मित्वा) वीरभद्र "पादिभंज" के रूप में अवतरित होना उसमें वर्णित है। यह मयूरी साधारण नहीं, वर जनोंके पुराणों में पणित श्रुतदेवी की बाहिनी थी। साधारण मयूरी के डिब से मानवकी उत्पति भला कैसे सभव होती हरिचन्द ने स्वरचित 'सगीत मुक्तावली में अपने वंश परिचयके प्रसगमें लिखा है कि उनका वश बुति-मयूरिका से उत्पन्न है। हरिचन्द कनका के राजवंशीय थे और उनकी रचनायें १६ वीं शती की रची हुई पी। उपर्युक्त श्रुति, श्रुतिदेवि अथवा सरस्वती ही है । जनमत में सरस्वती का वाहन मयूरी है। इससे प्रतीत होता है कि
SR No.010143
Book TitleUdisa me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshminarayan Shah
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1959
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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