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________________ भासित है इस freei को भूल कर हम विभिन्न देव देवियों की कारावना में मग्न रहते है- बाहर की शक्ति की पूजा करते है । प्रचुर्य हैं, व्यक्ति मुक्ति को बाहर ढूंढ रहा है ! मानव तथा अन्य जीवोके साथ ऐक्य धीर सखाभाव स्थापन करना धर्मका प्रबलतम उपदेश है। इसीलिये जैनियोने पहिंसा की बीति को प्रत्यक्ष विगूढ़ भावसे ग्रहण किया है । वे लोग रात में भोजन इसलिये नहीं करते कि रात में दीप जलाने पर उसमें कीट प्रलय गिरकर मर जाते हैं । यहाँ तक कि पानी को छानकर पीते है और उसका परमित उपयोग करते है जिस से कि जलकास के छोटे छोटे जीवाणुओंों का नाश न हो । पृथ्वी के इतर धर्मोकी भाति जैनधर्म में हिमक- युद्धो का घनघोर या पशुवलपरक वीरत्वका परिप्रकाश दिखाई नही देता । धर्म में शान्ति, सौहार्द, प्रीति, संयम, श्रहिंसा, और मधुर मैत्री मादि विशेषतायें विद्यमान है । धार्मिक, प्राध्यात्मिक, दार्शनिक और व्यावहारिक विचारसे जैनधर्म ने मानव जीवन को सुन्दर करनेका विधान किया है। किसी भी जीवकी हिसा न करना और उस साधत से मोक्ष का लाभ करना जैनधर्मकी सबसे बडी विशेषता है। बौद्धधर्मके निर्वाण मे अन्त में शरीर का ध्वस करना पड़ता है, लेकिन मोक्षके लिये अपनेको ध्वस करनेकी बाल जंनधर्म से नहीं है । उसमें अपने को जीतकर जगत् की सेवा लगने की बात है | यही है सच्चा मोक्ष बड़े प्राश्चर्य की जव है कि ऐसा धूम्रमत भी ससार में सृमद्धित भोर व्याप्त स. हो सका। मेरे विचारसे इसका कारण यह हो सकता है कि मलय के हृदय से शान्ति की स्पृहासे युद्ध की प्रवृत्ति अधिक मात्रा मे बैठती है । उस प्रवृत्ति का समूल विनाश करना जैन #f की प्रान चैष्टा है। इसलिये धर्म प्रचारकोंक द्वारा पृथ्वी के विश्चिन्द्र यादों में धर्म के लिये युद्ध हुष्टि की चेष्टा जैन धर्म म
SR No.010143
Book TitleUdisa me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshminarayan Shah
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1959
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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