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________________ तृतीय प्रकाश ३१ अर्थ - साधारण और प्रत्येकके भेदसे वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकारके हैं । पृथिवी तलपर जिनके श्वास तथा आहार आदि एक हैं अर्थात् एकके श्वास लेनेपर सबकी श्वास ली जाती है और एकके आहार करनेपर सबका आहारही जाता है एवं जिनके एक शरोरमे अनन्त जोव रहते है वे साधारण माने गए हैं। इन्हीका दूसरा नाम निगोद है। नित्य निगोद और इतर निगोदके भेदसे निगोद दो प्रकारके माने गये हैं । जिन जोवोने कभी निगोद से अन्य पर्याय नही प्राप्त की है और कर्मोंको विचि तासे कभी प्राप्तभी नही करेंगे वे दुख उठाने वाले नित्यनिगोद हैं । इस नित्यनिगोद मे कितनेहो जीव जिनेन्द्र भगवान्ने ऐसे बतलाये हैं कि जिन्होने आज तक दूसरी पर्याय प्राप्त तो नहीकी है परन्तु प्राप्त करेंगे । निगोद से निकलकरजो अन्य जोवोमे भ्रमण करते हैं और पुन उसीमे जा पहुँचते है वे इतरनिगोद हैं इन्हीको चातुर्गतिक निगोद भी कहते है । जिनमे एक शरीरका एक जीवही स्वामी होता है उन्हे जिनेन्द्रदेवने प्रत्येक कहा है। जिनका आश्रय पाकर अन्य स्थावर जीव रहते है जिना - गममे उन्हे सप्रतिष्ठित प्रत्येक कहा है। जिनके शरीरमे अन्य स्थावर जीव नही रहते वे आम आदि अप्रतिष्ठित प्रत्येक कहे गये हैं। जो साधारण हैं, सप्रतिष्ठित है और जिनके शरीर मे त्रसजीव रह रहे है वे वनस्पतियाँ दयालु पुरुषो द्वारा खाने योग्य नही है । भावार्थ- जो मूल बीज है जैसे आलू, घुईंया, सकरकन्द, अदरक, मूलो आदि तथा तोडनेपर जिनका समभङ्ग होता हो जैसे धनंतर आदि के पत्ते आदि साधारण है । साधारण जीवोमे एक शरीरके अनेक जीव स्वामी होते हैं परन्तु सप्रतिष्ठित प्रत्येकमे एकके आश्रय रहनेवाले जीव अपना-अपना स्वतन्त्र शरीर लेकर रहते हैं । प्रत्येकमे एक शरीरका एक ही स्वामी होता है-जैसे आम, अमरूद आदि । परन्तु जब तक इनका पूर्ण विकास नही हुआ है तब तक वे सप्रतिष्ठित प्रत्येक हैं अर्थात् अनेक जोवोके आधार है । गोभी तथा अमर कटूमर आदिमे त्रस जोवभी रहते है अतः दयावन्त जीवोंके द्वारा भक्ष्य नहीं हैं—- खाने योग्य नही हैं । यहाँ एक बात यह भी ध्यातव्य है कि आजकल कुछ लोगोमे जो यह धारणा चल पड़ी है कि वृक्षसे तोड़ लेनेपर फल निर्जीव हो जाता है उसे अचित्त करनेकी आवश्कता नही है, यह धारणा आगम सम्मत नही है क्योंकि एक वृक्षमे वृक्षका जीव अलग रहता है और उसके आधारपर उत्पन्न होनेवाले फलो तथा पत्तोंमें उनका जीव अलग रहता है अतः
SR No.010138
Book TitleSamyak Charitra Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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