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________________ ११४ सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः है, इस जगत् में जिसका सङ्ग पाकर अन्य पवित्र वस्तुएँ भी अपवित्र हो जाती हैं वह शरीर लोगोको कैसे रुचता है-अच्छा लगता है ? शरीरका राग ही सब रोगोका मूल कहा जाता है । यदि सब रागोसे विरक्ति हुई है तो शरीरका राग छोडना चाहिये । शरीरके रागसे सहित मनुष्य शरीरकी पीड़ा करने वाले क्षुधा, तृषा आदि परीषहोको सहन करनेमे सदा समर्थ नहीं हो सकते। ऐसे मनुष्य कही भो मुनि दीक्षा धारण नही करते और मुनि दीक्षा के बिना कही भी मोक्षकी प्राप्ति नही होती । है आत्मन् । यदि तेरे मन मे यथार्थ सुख प्राप्त करने की इच्छा है तो तुझे मुक्तिका बाधक शरोर सम्बन्धी दाम छोड देना चाहिये । पृथिवोतलपर मुनिराज सदा शरीरकी अशुचिताका विचारकर शरीर सम्बन्धी राग छोडनेमे समर्थ हैं । ये मुनिराज ही श्रद्धासे सहित हो कर्मक्षयकारक कायक्लेशादिक तप करते हैं ।। ५३-६२ ।। अब आसव भावनाका स्वरूप कहते हैं सच्छिद्रां नावमारुह्य यथा नो यान्ति मानवाः । स्वेष्ट धाम तथा लोकाः सालवा' स्वेष्टधामकम् ॥ ६३ ॥ मनोवाक्कायचेष्टा या सेव योगः समुच्यते । योगेनं वास्त्रवत्यत्र विविधा कर्मसन्ततिः ॥ ६४ ॥ तस्यां स्थिस्यनुभागो च कषायोदयतो मतौ । यथा स्थित्यनुमागं च सा ददाति फलं नृणाम् ॥ ६५ ॥ कर्मोदयवशाजीवा चतुरन्तभवार्णवे । मज्जनोन्मज्जने नूनं कुर्वन्ति विभ्रमन्ति च ॥ ६६ ॥ एकान्ताविमेदेन मिथ्यात्वं वञ्चषा मतम् । अविरतिश्च विख्याता द्वादशभेदसंयुता ॥ ६७ ॥ भेदाः सन्ति प्रमादस्य दशधा पञ्चधापि च । suratri प्रमेदा स्युः पञ्चविंशति संख्यकाः ॥ ६८ ॥ योगाः पञ्चदश प्रोक्ताः कर्मसिद्धान्तपारगः । द्वासप्ततिमिताः प्रोक्ताः कर्मसिद्धान्तपारगः ॥ ६९ ॥ एम्यो रक्षा प्रकर्तव्या स्वात्मनः सततं नृमि: । आलवे सति जीवानां कल्याणं नंव सम्भवेत् ॥ ७० ॥ यथा यथाहि जीवोsयं गुणस्थानेषु वर्धते । तथा तथा हि जीवस्य श्रीयन्ते स्वत आश्रवाः ॥ ७१ ॥
SR No.010138
Book TitleSamyak Charitra Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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