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________________ 111 अग्नि, घनीके द्वारा पोटी जाती है उसी प्रकार देहको संगतिसे यह आत्मा, कर्म रूपी घनोंके द्वारा पोटी जाती है । इस जगत् में जीवोंको जितने कष्ट हैं वे सब स्त्रो पुत्रादि प्राणियोके संयोगसे ही जानना चाहिये। जिनकी आत्मा परसे च्युत हो शुद्ध आकाशके समान हो गई है वे भगवंत सिद्ध परमेष्ठी हो लोकमे सुखो हैं ॥ ४३-५२ ॥ अष्टम प्रकाश आगे अशुचित्व भावनाका चिन्तन करते हैं मातातात रजोवीर्यादुत्पत्तिर्यस्य जायते । रा देहः शुचितां यायात् कथमित्थं विचार्यताम् ॥ ५३ ॥ य स्वभावावशुद्धोऽस्ति स शुद्धः स्यात्कथं परे । मलमूत्रमयो बेहो सुम्दर चर्मणावृतः ॥ ५४ ॥ I स्वर्णपत्रसमाच्छन्नमलपूर्णघटोपमः एतत्संगतिमासाद्य चित्रमाद्यम्ति मानवा! ।। ५५ ॥ यदीय सङ्गमासाद्य वस्तुन्यत्र शुचीन्यपि । अशुचीन्येव जायन्ते स वेहो रूच्यते कथम् ।। ५६ ।। शरीररागः सर्वेषा रागाणां मूलमुच्यते । सर्व रागविरक्तिश्चेद् देहरागो विमुच्यताम् ।। ५७ ।। बेहरागेण संयुक्ता व शक्ताः स्यु परीबहान् । सोढुं क्षुधापिवासादीन् देहपीडाकराम् सदा ।। ५८ ।। इत्थंभूता नराः क्वापि मुनिदीक्षां धरन्ति नो । सुनियोक्षां विना क्वापि मोक्षप्राप्तिनं जायते ॥ ५९ ॥ यथार्थ सुखलिता से मानसे यदि वर्तते । देहरागस्त्वया स्याज्यस्तर्हि मुक्तिप्रबाधकः ॥ ६० ॥ देहस्याशुचितां नित्यं भावयित्वा मुनीश्वराः । देहरागं परित्यक्तुं समर्थाः सन्ति भूतले ॥ ६१ ॥ एते मुनीश्वरा एवं कायक्लेशादिकं तपः । कुर्वन्ति श्रद्धयोपेताः कर्मक्षयविधायकम् ।। ६२ ।। अर्थ - माता-पिताके रजवीर्यसे जिसकी उत्पत्ति होती है वह शरीर शुचिता - पवित्रताको कैसे प्राप्त हो सकता है, ऐसा विचार करना चाहिये ? जो स्वभावसे अशुद्ध है वह दूसरे पदार्थोंसे शुद्ध कैसे हो सकता है ? मलमूत्रमय शरीर सुन्दर चर्मसे ढका हुआ है अत स्वर्णपत्रसे आच्छादित मलपूर्ण घडेके समान है । इस शरोरको संगति पाकर मनुष्य मत्त होते हैं- अपने आपको भूल जाते हैं । यह आश्चर्य की बात
SR No.010138
Book TitleSamyak Charitra Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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