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________________ एवं पर्वत, स्थाने सविशेषतः। अवन्य पूर्णाति समान्मुक्ति प्रयाति सः॥७२॥ अर्ष-जिस प्रकार छिद्र सहित नासार सवार हो मनुष्य अपने इष्ट स्थानको प्रास नही होते हैं उसी प्रकार बाब सहित मनुष्य अपने इष्ट स्थान-मोक्षको सास नहीं होते हैं। मन, बचन, कायको जो चेष्टा-व्यापार है वहीं बोल कहलाता है । इस बोपके द्वारा हो आत्मामे विविध कर्मसमूहोका आस्रव होता है। उन कर्मसमूहोंमे स्थिति और अनुभाग कषायके उदयसे होते हैं और स्थिति-अनुभागके अनुसार वे मनुष्योंको फल देते हैं। कर्मोदयके वशीभूत जीव चतुर्गतिरूप संसार सागरमें मज्जन और निमज्जन करते हुए, खेद है कि निरन्तर भ्रमण करते रहते हैं। एकान्त आदिके भेदसे मिथ्यात्व पाँच प्रकारका माना गया है, अविरतिके बारह भेद प्रसिब है, प्रमादके पन्द्रह भेद हैं, कषायोके पच्चीस प्रभेद हैं और योग पन्द्रह प्रकारके हैं। कर्मसिद्धान्त के पारगामी आचार्योंने ये हो सब आलवके बहत्तर भेद कहे हैं। मनुष्योको इन आस्रवके भेदोसे अपनी रक्षा करना चाहिये, क्योकि आस्रवके रहते हुए जोवोका कल्याण नहीं हो सकता है। जैसे-जैसे यह जीव गुणस्थानोंमें बढता जाता है वैसे-वैसे ही उसके आस्रव अपने आप कम होते जाते हैं । इस प्रकार चौदहवें मुणस्थानमे सब आस्रवोंका अभाव हो जानेसे पूर्ण अबन्ध हो जाता है-बन्धका सर्वथा अभाव हो जाता है और तब यह आत्मा क्षणभरमें मुक्तिको प्राप्त हो जाता है ।। ६३-७२।। आगे संवर भावनाका चिन्तन करते हैं मानवस्य निरोगो का बरः स हि कम्यते। संबरेल विना लोकोमेद स्पानं व्रजेत् स्यचित् ।। ७३ ॥ सच्छिापोतमाको लस्यासवणे सति । नियमेन सुबत्येव भोरे सागरे यथा ॥४॥ तपासावीवितह , शुभाचारमधिष्ठितः। नियमेन पतस्व. भवाचे मसागरे ॥ ७॥ मनो बारकास्यप्तीनां प्रवेष धर्मतः। पचया समितिभ्यास मारिवानां च पञ्चकात् ।। ७६ ॥ भासयोऽनुप्रेमायो या परोपही। संबरो जायते मूर्न सम्भावल्या विशुम्भताम् ॥ ७॥
SR No.010138
Book TitleSamyak Charitra Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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