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________________ Hop सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः द्वेषका प्रवाह क्षणभरमे रुक जाता है और उससे दुष्ट कर्मोंको निर्जरा शीघ्र होने लगती है ।। ६१-६६ ॥ आगे व्युत्सर्ग तपका कथन करते हैं - बाहीकाभ्यन्तरोपध्योस्यागं कृत्वा प्रमोदतः । कायोत्सर्गीय मुद्राभिः स्थित्वात्मानं विचिन्तयन् ॥ १०० ॥ विविक्ले य. स्थितः साधुस्तपस्येत् तस्य या क्रिया । व्युत्सगं सा हि विज्ञेयं तपो ध्यानस्य साधनम् ॥ १०१ ॥ अर्थ- बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रहका त्यागकर कायोत्सर्गको मुद्रामे स्थित हो आत्माका चिन्तन करता हुआ सग्धु एकान्तमे जो तपश्चरण करता है उसको यह क्रिया व्युत्सर्ग नामका तप है। यह तप ध्यानका साधन है ॥। १०० - १०१ ।। - अब ध्यान नामक तपका वर्णन करते हुए आतंध्यानका वर्णन करते हैंश्रेष्ठसंहननोपेतश्चित्तं काग्र्येण संयुक्ता । कुरुते यत्पदार्थेषु चिन्ताया विनिरोधनम् ।। १०२ ।। तद्ध्यानं कथ्यते लोकेज नागमविशारदः । आर्तरौद्राविभेवेन ध्यान स्यात्तच्चतुविधम् ॥ १०३ ॥ आत. खे भवेद्यत्तवासं ध्यान तदुच्यते । भेदा अस्यापि चत्वारः प्रगीता परमागमे ॥ १०४ ॥ इष्टस्त्रीसुतवित्तादिवियोगप्रभव ततः । पुनः ।। १०५ ।। अनिष्टा हिमृगेन्द्रादिसंयोगाज्जनित श्वासकासादिरोगाणामाक्रमाज्जनितं ईप्सितभोगकाङ्क्षायाः प्रभावाज्जनितं पुनः ॥ १०६ ॥ तत । अर्थ - उत्तम - आदिके तोन संहननोसे सहित तथा चित्तको एकाप्रतासे युक्त पुरुष जो पदार्थोंमे चिन्ताका निरोध करता है जैनागममे प्रवाण पुरुषो द्वारा वह ध्यान कहा जाता है । आतं, रौद्र, धर्म्यं और शुक्लके भदसे वह ध्यान चार प्रकारका है । आति अर्थात् दुःख के समय जा होता है वह आतध्यान कहलाता है । इसके भी परमागममे चार भद कह गये हैं । इष्ट, स्त्रो, पुत्र तथा धन आदिके वियोगसे होने वाला इष्ट-योगज 14 नामका पहला आर्तध्यान है । अनिष्ट सर्प तथा सिंह आदिके सयोगसे होने वाला अनिष्टसयोगज नामका दूसरा आतंध्यान | श्वास तथा खाँसी आदि रोगोके आक्रमण से होने वाला वेदनाजन्य
SR No.010138
Book TitleSamyak Charitra Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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