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________________ संस प्रकार नामका तीसरा आतध्यान है और ईप्सिन भोगोंको नाकाडासे होने वाला निवान नामका चौथा आर्तध्यान है ।। १०२-१०६ ॥ अब रोद्रव्यानका वर्णन करते हैं शास्य परमावस्य जातं रौवं प्रचक्षते । मेवा अस्यापि चत्वारो जिननिरूपिता ॥१०७॥ हिसानको मृवानम्वरचौर्यावरण दुपा। विषयामबाहत्येते त्वारः सम्प्रकीर्तिताः ॥१८॥ भर्ष-रुद्र अर्थात् क्रूर परिणाम वालेके जो होता है वह रौद्रध्यान कहलाता है। जिनेन्द्रदेवने इसके भो हिंसानन्द, मृषानन्द, दु.खदायकचौर्यानन्द और विषयानन्द-परिग्रहानन्द, ये चार भेद कहे हैं। हिंसाके कार्योंमें तल्लोन होकर बानन्द मानना हिंसानन्द है। मृषा-असत्य भाषणमे आनन्द मानना मृषानन्द है। चोरोमे आनन्द मानना चौर्यानन्द है और पञ्चन्द्रियोके विषयभूत परिग्रहको रक्षामे व्यस्त रहते हुए आनन्द मानना विषयानन्द-परिग्रहानन्द है ।। १०७.१०८।। मागे धर्म्यध्यानका वर्णन करते हैं स्या धर्मादनपेतं यत् तद् धन्यं च निगयते। मेवा अस्यापि स्वार: सूत्रमध्ये प्रपिताः॥१०६॥ स्यावासाविचयः पूर्वो पायविषयस्ततः। विपाकविषयः पश्चात् संस्थानविषयस्ततः ॥११० ॥ अर्थ-धर्मसे सहित ध्यान धर्म्यध्यान कहलाता है। आगममें इसके भो चार भेद कहे गये हैं-पहला आज्ञा-विचय, दूसरा अपाय-विचय, तीसरा विपाक-विचय और चौया संस्थान-विचय । सूक्ष्म, अन्तरित तथा दूरवर्ती पदार्थोंका आज्ञा मात्रसे चिन्तन करना आज्ञाषिचय है। चतुर्गतिके दुःख तथा उससे बचनेके उपायका चिन्तन करना अपायविषय है। कर्म प्रतियोके फल, उदय, उदोरणा तथा संक्रमण भादिका विचार करला विपास-विषय है और लोकके सस्थान-आकार मादिका विचार करना संस्थान-विचय कहलाता है ।। १०६-११०॥ माये शुक्लध्यानका कथन करते हैं सुक्लस्य रामकालिना रहितस्य भवेतु यत् । शुक्लण्यानं परं प्रोक्तं प्रधान मोक्षकारणम् ॥१११॥ एतस्यापि चतुर्मेसा शास्त्रयम्य प्रापिताः । कर्मनिरपोपाया मुनीनाष सात ते ॥ ११२॥
SR No.010138
Book TitleSamyak Charitra Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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