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________________ सप्तम प्रकाश बागे स्वाध्याय तपका वर्णन करते हैं स्वस्वभावस्य सिद्ध्यर्थ स्वाध्याया साधुभिः सदा । कर्तव्यच स्थिरं कृत्वा पलं विस प्रमोवतः॥९१॥ या शास्त्राध्ययनेन स्वस्यवाध्ययनं भवेत्। स्वाध्यायासच विशेषा स्वाध्यायः परमं तपः ॥ ९२ ॥ वाचनाप्रच्छना चाप्यनुप्रेक्षाम्नायको तथा। धर्मोपदेशश्चेत्येताः स्वाध्यायस्य भिवा मताः॥ ९३ ॥ मिरवद्यार्थयुक्तस्य पाठो भवति वाचना। संशयस्य निराकृत्य मातस्य वृढताकृते ॥१४॥ विनयात्प्रन्छनं श्रोतुः प्रच्छना किल कम्यते । सिदान्तश्रुतत स्वस्य भूयोभूयोऽमिचिन्तनम् ॥ ९५ ।। स्वाध्यायो नाम विशेयोऽनुप्रेक्षाभिषानकः । पन्धस्योच्चारणं सम्यगाम्नायः कथितो जिनः ॥ ९६ ॥ शुद्धर्मनोहरक्यिो श्रोतृकल्याणवाञ्छ्या। धर्मस्य देशना या हि सरलीकृतचेतसा ॥ ९७ ।। धर्मोपदेशनामा स स्वाध्यायः कषितो जिनः। स्वाध्यायाचपलं चेतः क्षणादेव स्थिरं भवेत् ॥ ९८॥ रागद्वेषप्रवाहश्च निरुतो भवति क्षणात । ततश्च निर्जरा दुष्टकर्मणां जायतेऽचिरात् ।। ९९॥ अर्थ-स्व-स्वभावकी सिद्धिके लिये साधुओको सदा चित्त स्थिरकर हर्षसे स्वाध्याय करना चाहिये। जहां शास्त्राध्ययनसे स्व-ज्ञाता द्रष्टा स्वभाव वाले आत्म-तत्त्वका अध्ययन होता है, उसे स्वाध्याय जानना चाहिये। ऐसा स्वाध्याय परम तप माना गया है। वाचना, प्रच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश, ये स्वाध्यायके पाँच भेद माने गये हैं। निर्दोष अर्थसे युक्त शास्त्रका पढ़ना वाचना है। संशयका निराकरण करने और ज्ञात तत्त्वको दृढ़ करनेके लिये विनयसे श्रोताका जो पूछना है वह प्रच्छना कहलाती है। आगममे सुने गये तत्त्वका बार-बार चिन्तन करना अनुप्रेक्षा नामका स्वाध्याय जानने योग्य है। प्रन्यका ठीक-ठोक उच्चारण करना-आवृत्ति करना आम्नाय नामका स्वाध्याय जिनेन्द्र भगवान्ने कहा है। सरल चित्त वाले वक्ताके द्वारा मोताओंके कल्याणको इच्छासे शुद्ध एवं मनोहर वचनों द्वारा जो धर्म को देशना दी जाती है उसे जिनेन्द्रदेवने धर्मोपदेश नामका स्वाध्याय कहा है। स्वाध्यायसे चल चित्त क्षणभरमें स्थिर हो जाता है, रामः
SR No.010138
Book TitleSamyak Charitra Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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