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________________ चौथा सर्ग इस नव प्रसंग में षट्पश्चाशत् दिक्कुमारियाँ लीला से । निज छद्मवेश में श्रा बोलीं, सविनय उन लजाशीला से ।। "हम अायीं ले तव चरणों की-~ सेवा करने का लोभ शुभे । दें शरण, हमारी सेवा से, होगा न श्रापको दोभ शुभे । हम नहीं करेंगी कपट कभी, हे देवि ! श्राप विश्वास रखें । यह कार्य प्रमाणित कर देगा, कुछ दिन बस अपने पास रखें । हम सब भी तो परिचर्या की, हर विधि में पूर्ण प्रवीणा भी। हम गा भी सकती हैं और बजासकतीं हैं वंशी वीणा भी ।। हम नयी कलामय विधियों से, कर सकती हैं शृङ्गार सभी । तन की हर पीड़ा बाधा का कर सकतीं हैं उपचार सभी ।
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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