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________________ चौथा सर्ग नागेन्द्र निकेतन, रत्न राशि, निर्धूम अग्नि अभिराम यही । स्वप्नों में दिखे हुये सोलहदृश्यों के हें नाम यही || अवलोक श्राप निज प्रज्ञा में, इनका सब फल बतलायें अब ! निद्रा ने स्वप्न दिखाये हैं, फल आप मुझे दिखलायें अब || यों निज विचार कह चुकने पर, 'त्रिशला ' मन में उल्लास लिये । दो गयीं मौन, उन स्वप्नों काफल सुनने की अभिलाष लिये । सच लगे देखने नृप का मुख, ज्यों ही वह वचन प्रवाह रुका । 'सिद्धार्थ' कथित फल सुनने को, सबके मन का उत्साह झुका || पर भूपति क्षण भर लीन रहे, जाने किन सुखद विचारों में ।। तदनन्तर व्यक्त लगे करने, स्वप्नों का फल उद्गारों में || १२६
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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