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________________ १२८ श्रतएव शरण में आयी हूँ, मैं अपने भाग्य विधाता की । अपने मतिमान वृहस्पति की, अपने जीवन-निर्माता की ॥ अब आप कृपा कर स्वप्नों के, सोलह दृश्यों के नाम सुनें । व्यापक प्रज्ञा में, ही परिणाम गुने || सुन अपनी उन सब का हैं आप स्वयं ही विज्ञ, अतः मैं नाम मात्र ही हाँ, आप कहेंगे जो फल उसे अवश्य सँजो बोलूँगी | विस्तृत - लँगी !! परम ज्योति महावीर उन दृश्यों के क्रम को नहीं अभी, तक मेरी संस्मृति भूली भी, कारण न अल्प भी पड़ने दी । उन पर विस्मृति की धूली भी ।। वे सोलह ये गजराज, वृषभ, हरि, लक्ष्मी का संस्नान तथा । माला, शशि, रवि, युग मीन, कलश, सर, सिन्धु, सिँहासन, यान तथा ॥
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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