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________________ पहला सर्ग उत्साहित होकर उत्सव से, हर धार्मिक पर्व मनातीं थीं । सत्पात्र दान का अवसर पा वे फूली नहीं समाती थीं ॥ प्रिय सरल वेष था उनको, वे -- esम्बर अधिक न रखतीं थीं । तो भी स्वाभाविक सुषमा से, वे विश्व सुन्दरी लगतीं थीं ॥ रखतीं सदैव यह ध्यान, किसीसे कोई दुर्व्यवहार न हो । मन-वचन-कर्म से कभी किसीका कोई भी अपकार न हो ॥ उपहास कदापि न वे गूँगे, लँगड़े, कल्याण मनाया भव-वन में भटके यदि पति का शिर भी दुखता तो, उपचार स्वयं वे करतीं थीं । उनको सप्रेम खिला कर ही, आहार स्वयं वे करती थीं ॥ करतीं थीं, लूलों का । करतीं थीं, भूलों का || ૬.
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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