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________________ ६६ स्वस्थ वे रहतीं थीं, सर्वदा होता न उन्हें था रोग कभी । अतएव न करना पड़ता था, श्रौषधियों का उपयोग कभी || मन का सहवास न तजता था, संयम में भी उल्लास कभी । अधरों का वास न तजता था, निद्रा में भी मृदु हास कभी || तुल्य गहन, यद्यपि थीं दर्शन पर लगतीं सरस कहानी सी । तत्काल अपरिचित लगने लगतीं पहिचानी सी ॥ दर्शक को परम ज्योति महावीर उनको था अन्य न कोई भय, केवल पार्पो से डरतीं थीं । वे श्रार न कुछ भी हरतीं थीं, बस प्रियतम का मन हरतीं थीं ॥ धरतीं थीं, डग नहीं एक भी प्रिय इच्छा के प्रतिकूल कभी । किंचित् भी देर न करतीं थीं, निज धर्म- क्रिया में भूल कभी ॥
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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