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________________ पहला सर्ग उन सम कोमलता कभी कहीं, देखी न गयी क्षत्राणी में । केवल कोमल अणु. . लगे हुयेथे तन में, मन में, वाणी में ॥ अधिकार पूर्ण वे सारी ललित अध्यक्षा होती वे महिला - लोक उनमें नवीनता इतनी थी, जितनी रहती हैं ऊषा में । पावनता इतनी थी जितनी, रहती निष्काम सुश्रूषा में ॥ विज्ञाता थीं, कलाओं की । थीं प्रायः, सभाओं की ॥ था ज्ञात पाक विज्ञान उन्हें, नित नव मिष्टान्न बनातीं थीं । कौशल से प्रिय को विस्मित कर प्रति दिवस प्रशंसा पातीं थीं ॥ यौवन का उनको गर्व न था, सुन्दरता का अभिमान न था । माया का किंचित् बोध न था, छलना का भी परिज्ञान न था ।. શ
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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