SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 334
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तेईसवाँ सर्ग यों इस प्रचार में सतत 'वीर' को मिली अपूर्व सफलता थी। इसका कारण कुछ नहीं अन्य, उनके मन की निर्मलता थी। उनतीस वर्ष से यों अब तक चलता प्रचार निर्बाध रहा । कारण प्रभुवर का ज्ञान-सिन्धुसागर से अधिक अगाध रहा ।। करने व्यालिसवाँ चतुर्मास, 'पावापुर' को इस बार चले । पथ में अनेक ही भव्यों का, करते आत्मिक उद्धार चले ॥ थे 'पावा' के नृप 'हस्तिपाल' 'सिद्धार्थ-लाल' के भक्त परम । अतएव 'वीर' के शुभागमनपर हर्ष किया अभिव्यक्त परम || इस पुण्ययोग को माना था, राजा ने अपना भाग्य महा । केवल न उन्होंने अपितु प्रजाने भी समझा सौभाग्य महा ।।
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy