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________________ उनीसवाँ सर्ग भव-धारण का कारण केवल सत्कर्म कुकर्म प्रताप सदा । नर सुर गति देते पुण्य तथा तिर्यञ्च नरक गति पाप सदा ।। अतएव कर्म पर श्राधारितहै अागामी अवतार यहाँ ? एवं प्राणी के पुनर्जन्मका देह नहीं आधार यहाँ ।" श्रीयुत 'सुधर्म' को उक्त वचन, अक्षरशः सत्य प्रतीत हुये । अतएव जिनेश्वर से दीक्षालेने के भाव पुनीत हुये ।। निज छात्र वर्ग के संग सविधि दीक्षा ले मन में तोष किया। हो गये पाँचवें गणधर वे सबने उनका जयघोष किर्या ।। तदनन्तर पास खड़े 'मण्डिक'की ओर 'वीर' ने ध्यान दिया । कारण उनके भी अन्तस् की जिशासा को था जान लिया।
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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