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________________ E उत्तर तन अतएव पूर्व तन का कारण तो हो जाता है । पर उत्तर भव के धारण का यह हेतु नहीं हो पाता है | भव-प्राप्ति हेतु तो के कर्मों का ही यह ही अनादि से में सब जीवों को मिलती है, जैसा है । उसको वैसी गति जो कर्म बाँधता जैसा बीज - वपन होता है फल भी तो मिलता वैसा है || परम ज्योति महावीर यह पूर्व भविक काया इसमें सकती प्रभाव कुछ डाल नहीं । नर सुर हो अमृत पी सकता, हो सकता विषधर व्याल यहीं || सदा जीव रहा । जाल चारों गति डाल रहा || ―― कर अशुभ कर्म यह जीव अशुभ गतियों में यथा भटकता है । शुभ कर्मबाँध शुभ गतियों में उत्पन्न तथा हो सकता है ||
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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