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________________ ४६८ - परम ज्योति महावीर बोले-"क्या तुमको वन्ध-मोक्षतत्वों में है सन्देह कहीं ? निज शंका प्रकट करो मन में-- दो उसे बनाने गेह नहीं ॥" सुन 'मण्डिक' बोले-"मम मत से, श्रात्मा निर्मल स्वाधीन सभी । रहते सुस्फटिक सदृश उज्ज्वल, होते हैं नहीं मलीन कभी ॥ इन पर न बैठने पाती है, इन कर्मों की भी धूल कभी। अतएव मोक्ष की सत्ता ही मुझको लगती निमूल अभी ।। सुन कहा नाथ ने--"सुनो, विप्र ! मैं सत्य स्वरूप सुनाता हूँ। वास्तव में वस्तुस्थिति क्या है ? यह अभी तुम्हें समझाता हूँ ॥ तुमने जो श्रात्मा का स्वरूप वर्णन कर मुझे सुनाया है। वह किनका वर्णन है ? तुमको-- यह नहीं समझ में आया है ।
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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