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________________ ४६५ उन्नीसवाँ सर्ग वैसा न वस्तुतः है, तुमकोजैसा कि समझ में आया यह । घटता न नियम जन्मान्तर में, जो तुमने यहाँ घटाया यह ॥ यह सत्य कि तिल से तिल ही तो होता सदैव उत्पन्न यहाँ । पर भाव कार्य औ' कारण का शारीरिक हो सम्पन्न यहाँ ।। इस भाँति पुरुष की भी सन्तति होती है पुरुषाकार सदा । एवं पशुओं से होता है, पशुतन धारी अवतार सदा ॥ यदि यह नियम न होता, तोसब कुछ होता प्रतिकूल यहाँ । तरु-शास्त्रा जनतों मानव को, नारी में खिलते फूल यहाँ ।। पर हे सुधर्म ! हर प्राणी काही जीव पृथक् औ' गात पृथक् । उत्तर शरीर की बात पृथक श्री' उत्तर भव की बात पृथक् ।।
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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