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________________ महावीर के श्रद्धालु काव्यानुरागियों को यह अभाव खटकता रहा है। कुछ कर्मठ कवि इस अभाव की पूर्ति का प्रयास भी कर रहे थे। मेरा भावुक कवि-हृदय भी उन्हीं दिनों ऐसा महाकाव्य लिखने को ललचा उठा था, पर तब मेरी काव्य साधना घुटनों के बल चलना ही जानती थी । इस हिमालय के शिखर तक पहुँच सकना उसके सामर्थ्य के बाहर था । अतः मन की साध मन में लिये ही रह जाना पड़ा। अाज से १४ वर्ष पूर्व मैंने ललितपुर के सहृदय कवि श्री हरिप्रसाद जी 'हरि' से इस विषय में लिखे जाने वाले महाकाव्य के कुछ छन्द सुने थे और तब उन्हें सुनकर मुझे श्राशा हो गयो थी कि उक्त अभाव की पूर्ति अविलम्ब होने जा रही है, पर दोर्घ समय तक श्री 'हरि' जी के महाकाव्य के पूर्ण होने के समाचार प्राप्त नहीं हुये, यह देखकर आशा की वह सुकोमल लता मुरझा चली। जुलाई, सन् १९५१ में भारतीय ज्ञान पीट काशी से श्री 'अनूप' जी शर्मा का 'वर्द्धमान' महाकाव्य प्रकाशित हुआ । जब उसका विज्ञापन समाचार पत्रों में देखा तो मन मयूर हर्षावेग में नृत्य कर उठा । मैंने वह ग्रन्थ मँगाकर श्राद्योपान्त ध्यान पूर्वक पढ़ा । पढ़ने पर प्रसन्नता संकुचित हो गयी, इसका कारण यह था कि मैंने अपने मास्तिष्क में श्री महावीर सम्बन्धी महाकाव्य का जो रेखा चित्र खींचा था, उसके दर्शन इस १६६७ छन्दों के विशाल महाकाव्य में भी नहीं हुये। इसमें सन्देह नहीं कि श्री 'अनूप' जी शर्मा ने इस महाकाव्य के प्रणयन में यथा शक्ति परिश्रम किया था और उनका यह साहस केवल प्रशंसनीय ही नहीं अनुकरणीय भी था। फिर भी कुछ ऐसे कारण इस महाकाव्य में विद्यमान थे, जिससे उसको उपयोगिता
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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