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________________ ( १६ ) उतनी अधिक नहीं मानी जा सकी जितनी मानी जानी चाहिये। इसमें महावीर सम्बन्धी घटनाओं का क्रमवार इतिहास भी देखने को नहीं मिलता, जिसकी आवश्यकता सर्वोपरि थी। इसके अतिरिक्त इसकी रचना के लिये श्री 'अनूप' जी ने संस्कृत वृत्त को अपनाया इसमें अन्त्यानुप्रास का सर्वथा अभाव होने के कारण प्रवाह भी उतना नहीं श्रा पाया जितना आना चाहिये था। अन्य में प्रायः सर्वत्र संस्कृत के क्लिष्ट शब्दों का प्रयोग बहुलता से किया गया है, जिससे रचना के प्रसाद एवं माधुर्य गुण को बाधा पहुँची है एवं श्रमसाध्य होने पर भी उक्त महाकाव्य साधारण पाठक के लिये रूचि पूर्वक पठनीय नहीं रह गया । कवि के ब्राह्मण होने के कारण अनायास ही ब्राह्मणत्व की कुछ ऐसी मान्यताएँ भी उक्त महाकाव्य में आ गयीं है जो जैन सिद्धान्तों के विपरीत हैं। यह सब होते हुये भी मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि श्री 'अनूप' जी ने तीर्थकर.वर्द्धमान पर महाकाव्य रचकर अपनी लेखनी को पावन किया है। केवल यही नहीं, अपितु भावी कवियों के लिये उन्होंने एक रुद्ध मार्ग का उद्घाटन कर दिया है । मुझे स्वयं श्री 'अनूप' जी के महाकाव्य से इस महाकाव्य को लिखने की प्रेरणा मिली है और एतदर्थ उनका श्राभार स्वीकार करना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ। जब 'वर्द्धमान' महाकाव्य को मैंने भावना के अनुरूप नहीं पाया, तब मैंने आवश्यक शक्ति और साधनों का अभाव रहते हुये भी इस साहित्यिक अनुष्ठान को सम्पन्न करने की भावना की और 'शुभस्य शीघ्रम्' के अनुसार भाद्रपद शुक्ला अष्टमी वीर निर्वाण संवत् २४८० (वि० सं० २०११) तदनुसार ५ सितम्बर, सन् १९५४ को महाकाव्य लिखने का संकल्प कर शुभारम्भ कर दिया। अन्य का शुभारम्भ मैंने जिस उल्लास के साथ किया, वह उल्लास अबाध रूप से अपने संकल्प को मूर्तिमान करने में निरन्तर सक्रिय
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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