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________________ २७८ तन जैसा मन भी निर्मल है, करती है वार्तालाप मधुर । मुख से मोती सी झरती है शब्दावलि अपने आप मधुर ॥ मैंने उसके ही संग अभी, परिणय की बात चलायी है । औ' उसकी माता तथा पिता-की भी तो स्वीकृति श्रायी है ।। 'जितशत्रु' कलिंग महीपति हैं उनकी है राजदुलारी यह । 'औ' नाम 'यशोदा' द्वारा ही, विश्रुत है राजकुमारी यह || परम ज्योति महावीर श्रतएव इसी के सँग परिणय, स्वीकृत ऐ मेरे लाल ! करो । वर रूप बनाकर चलो तथा स्वीकृत उसकी वरमाल करो ॥ सर्वोत्तम है, सम्बन्ध यही स्वीकार इसे सोल्लास करो । सन्देह करो मत इसमें कुछ, मम बातों पर विश्वास करो ||
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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