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________________ दसवाँ सर्ग विश्वास मुझे, हो जायेगातुमको भी उससे प्रेम स्वयं । औ' प्रकृति मिलेगी दोनों की, होगा दोनों का क्षेम स्वयं ॥ वह नत्र से शिख तक सुन्दर है, काया का रङ्ग मनोहर है । श्राकार करू क्या वर्णित मैं, उसका हर अङ्ग मनोहर है ॥ उसमें नारी के लावण्य, शील औौ' रुचि भी अत्यन्त मोहक रहती तन सुगुण सभी, लज्जा भी । परिष्कृत है, सज्जा भी ॥ उस जैसी छवि की अन्य सुता, मिल सकती कहीं न लाखों में । जिस दिन से देखा, उस दिन वे, वह झूल रही मम श्रांखों में || ही आकर्षक, होते अतीव उसके सब क्रिया कलाप स्वयं । यदि तुम उसको लो देख, पड़े, तो तुम पर उसकी छाप स्वयं । - २७७
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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