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________________ दसवाँ सर्ग २८५ उद्देश्य पूर्ण वह करना है, जो लेकर जग में आया हूँ। जो धर्म प्रचारण करने को, यह तीर्थकर पद पाया हूँ । कुण्ठित सी दया अहिंसा को, है केवल मुझसे आशा यह । मैं उनकी पीड़ा दूर करू, हर पीड़ित की अभिलाषा यह ॥ हो रहा पतन नैतिकता का, इसको भी मुझे उठाना है । निज प्रेम न केवल एक प्रिया, हर प्राणी हेतु लुटाना है । देखो कि 'नेमि' ने पशुओं काकन्दन सुन त्यागे थे कङ्गण । इस भाँति मौर को फेंका था, मानो हो विषधर का ही फण ॥ 'श्री कृष्ण' न उनको रोक सके, समझा यदुवंशी थके कई । पर लिया 'द्वारिका'-राज्य नहीं, श्रो' वरी न 'राजुल' रूप मयी ॥
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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