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________________ २१६ परम ज्योति महावीर प्रनु-काया स्वतः मनोहर थी, अब और मनोहर ज्ञात हुई । उसकी सुषमा सुरनायक कोभी तो विस्मय की बात हुई ।। इससे उनने संख्या सहस्र की तत्क्षण अपनी आँखों की । पर समझा इस छवि-दर्शन को, पर्याप्त न आँखें लाखों भी ।। उन 'परम ज्योति' की काया कीसुन्दरता का था अन्त नहीं । अतएव तृप्त हो पाये थे, वे इन्द्राणो के कन्त नहीं ।। उनने श्रद्धा से गद्गद हो, संस्तुति करते इस भाँति कहा । 'हे नाथ ! जगत के सब जीवोंको सुखद आपका जन्म अहा ॥ ले गोद श्रापको धन्य हुईहै आज हमारी गोद प्रभो । औ' मना जन्म कल्याणक यह, हो रहा हमें अति मोद प्रभो ॥
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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