SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 48
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वृहत्फणामण्डलमण्डपेन यं स्फुरत्तडिपिङ्ग रुघोपसमिणः। नुगृह नागो धरणो धराधरं विराग सध्या तडिदम्बुदो पया। अतः पद्मावती के द्वारा भगवान पार्श्वनाथ को अपने मस्तक पर बैठाये हुए जो मूर्ति देखी जाती है वे सब पश्चात्कालीन हैं। उनका वास्तविक घटना से कोई संबंध नहीं है। दक्षिण में हुम्मच पद्मावती क्षेत्र में एक विशाल शिलापट्ट है जिसमें भगवान पार्श्वनाथ पर धरणेन्द्र छत्र ताने खड़ा हैं वह चित्रांकन ही यथार्थ है। देवी, देवताओं की भक्ति के युग में वीतरागता के उपासक जैन धर्म में भी यह देवी पूजा प्रवर्तित करने के लिए इस तरह की कथायें भट्टारक युग में रची गईं जिनके फलस्वरूप भगवान पार्श्वनाथ को उनके रक्षक धरणेन्द्र को भुलाकर लोग पद्मावती के भक्त बन गये। पासणह चरिउ (पदमकीर्तिकृत) के अनुसार-“धरणेन्द्र ने आकर जिनवर की प्रदक्षिणा की, दोनों पादपङ्कजों में प्रणाम किया तथा वन्दना की। फिर उसने जिनेन्द्रदेव को जल से उठाया। उसने जिनवर के दोनों चरणों को प्रसन्नता से अपनी गोदी में रखा तथा तीर्थंकर के मस्तक के ऊपर अपना विशाल फणमण्डप फैलाया। वह नाग सात फेणों से समन्वित था। इन्द्रों ने आकर केवलज्ञान की पूजा की। सम्बर नामक ज्योतिष्ठ देव भी काललब्धि पाकर शान्त हो गया और उसने सम्यग्दर्शन संबंधी विशुद्धता प्राप्त की। इस घटना से जैन समाज में पद्मावती देवी के प्रति श्रद्धा हो गई। परिणामतः कतिपय लोगों ने पद्मावती देवी की प्रतिमा भी मन-मंदिर के बजाय कहीं-कहीं मन्दिरों में स्थापित की है। उनमें पद्मावतीपुरवाल जैन समाज के कतिपय लोग भी हैं। दूसरा तथ्य यह भी है कि पद्मावती नगरी नाग साम्राज्य की राजधानी 23 पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
SR No.010135
Book TitlePadmavati Purval Digambar Jain Jati ka Udbhav aur Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjit Jain
PublisherPragatishil Padmavati Purval Digambar Jain Sangathan Panjikrut
Publication Year2005
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy