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________________ महामन्त्र णमोकार और ध्वनि विज्ञान / 17 णं- णं ध्वनि तो पूर्णतः स्पष्ट है कि वह मूर्धा स्थानीय और अमृतमयी तथा अमृतवर्षिणी है। अतः णमो सिद्धाण के द्वारा कर्मनाश का योग बनता है। इस पद में तीन दन्त्य ध्वनियो की युगपत् तरग निर्मित से जो आहत नाद बनता है वह लोकोत्तर होता है। ज्यो ही वह नाद (सिद्धा) 'णं' ध्वनि का स्पर्श करता है इसमे शब्दब्रह्म की अमृतमयता भर जाती है। भक्त या पाठक केवल 'णमो सिद्धाण' पद का भी जप या सस्वर पाठ कर सकते हैं । म अहिता की ध्वनि तरंग से हम में आध्यात्मिक निर्मलता आती है, श्वेताभा से हम भर उठते हैं, कर्मशत्रु वर्म पर विजयी हो जाते है, अमृत तत्त्व हमारे भीतर प्रवेश करने लगता है । णमो सिद्धाण उक्त प्रक्रिया में सक्रियता तत्त्व को योजित करता है और शक्तिवर्धन का काम भी करता है । पूर्व पद की सिद्धि या उपलब्धि अगले पद के कार्य मे योगात्मक होगी ही । णमोसिद्धाण पद पूर्णता को ध्वनित करता है । मानव हृदय और मस्तिष्क स्पष्टता और विश्लेषण अपनी समता मे जानना समझना चाहता है अतः वह अपने सहजीवी आचार्यों, उपाध्यायों और साधुओं की महानता को नमन करता है और अपनी आकाक्षा की पूर्ति करता है । स्पष्ट है कि परवर्ती तीन परमेष्टी पूर्ववर्ती दो परमेष्ठियों की शक्ति और सामर्थ्य के पोषक एव अनुशास्ता हैं । संसारी जीव इनके द्वारा ही प्रकट रूप मे सन्मार्ग ग्रहण करते है । णमो आइरियाणं : पंच नमस्कार मन्त्र में आचार्य परमेष्ठी का मध्यवर्ती स्थान है । आचार्य परमेष्ठी मुनि सघ के प्रमुख शास्ता एव चरित्र - आचारण के प्रशास्ता होते है | ये शास्त्रो के ज्ञाता और स्वयं परम संयमी एवं व्रती होते है ।
SR No.010134
Book TitleNavkar Mahamantra Vaigyanik Anveshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain, Kusum Jain
PublisherKeladevi Sumtiprasad Trust
Publication Year1993
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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