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________________ धर्म और उसकी आवश्यकता मन, वाणी और शरीर के द्वारा किया गया अहिसात्मक एव निर्माणकारी आचरण ही धर्म है। मन मे वचन में और क्रिया मे पूर्णतया एकरूपता होने पर ही किसी विषय में स्थिरता और निर्णायकता आ सकती है । मसार के सभी प्राणी सुख चाहते हैं और दुख से बचना चाहते है । उसी सुख प्राप्ति की होडा-होडी मे मानव विश्व का सब कुछ किमी भी कीमत पर प्राप्त कर लेना चाहता है । परन्तु ससार-संग्रह का तो अन्त नही है । प्राय बहुत बाद मे हम यह अनुभव करते है कि सुख मसार को पाने मे नही अपितु त्यागने में है । जीवन की सार्थकता निजी पवित्रता के साथ दूसरो के लिए जीने में है । यदि ससार के वैभव मे सुख होता तो तीर्थकर, चकवर्ती, नारायण और प्रतिनारायण आदि उसको तृणवत् त्यागकर वैराग्य का जीवन क्यो अपनाते ? अत स्पष्ट है कि मानव का जीव मात्र के प्रति अहिसक एव हितकारी आचरण ही धर्म है। विश्व के सभी धर्मो में, धर्म का सार यही है । इसी सार को अपने-अपने ढंग से सब धर्मो ने परिभाषित किया । जैन धर्म में भी कही आत्मा की विशुद्धता पर बल दिया गया है। और कही आचरण की विशुद्धता पर भेद केवल बलाबल का है । हम सूक्ष्म दृष्टि से देखे तो यह भेद सभी जैन शाखाओ के अध्ययन से स्पष्ट हो जाएगा। धर्म बोझ नही है, वह जीवन की सम्पूर्ण सहजता है । निर्विकार आत्मा की सहजावस्था ऊर्ध्व-गमन है - आध्यात्मिक मूल्यों का विकास है । मानव जीवन की उत्कृष्ट अवस्था है आत्म-साक्षात्कार अर्थात् हमारा अपनी निजता मे लौटना । निजता मे लौटना सयम द्वारा ही सभव है । कल्पसूत्र की परिभाषा दृष्टव्य है --"सयम मार्ग मे प्रवृत्ति करने वाले जिससे समर्थ बनते है, वह कल्प कहलाता है । उस कल्प की निरुपणा करने वाले शास्त्र को 'कल्प सूत्र' कहते है ।" हमारे शास्त्रो मे धर्म को बहुविध परिभाषित किया है - यथा 'वत्थु सहावो धम्मो ' अर्थात् वस्तु का स्वभाव ( सहज जीवन ) ही धर्म है । तत्वार्थ सूत्र में
SR No.010134
Book TitleNavkar Mahamantra Vaigyanik Anveshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain, Kusum Jain
PublisherKeladevi Sumtiprasad Trust
Publication Year1993
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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