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________________ 68 पाश्चात्य विद्वानों द्वारा भी प्रस्तुत की गई रहस्यवाद की ये परिभाषायें कथंचित ही सही हो सकती हैं। इनमें प्रायः सभी ने ईश्वर के साक्षात्कार को रहस्यवाद का चरम लक्ष्य स्वीकार किया है और उसे मनोदशा से जोड़ रखा है। परन्तु जैन दर्शन इससे पूर्णतः सहमत नहीं हो सकेगा । एक तो जैन दर्शन में ईश्वर के उस स्वरूप को स्वीकार नहीं किया गया जो पाश्चात्य दर्शनों में है और दूसरे रहस्यवाद का सम्बन्ध मात्र मनोदशा से ही नहीं, वह तो वस्तुतः एक विशुद्ध साधन पथ पर प्राचरित होकर प्रात्मसाक्षात्कार करने का ऐकान्तिक मार्ग है। Frank Gaynor का यह कथन कि उसे विश्वजनीन प्रात्मा के साथ अनात्मिक संयोग अथवा atfar एकत्व का प्रतीक न होकर अनुभूतिजन्य सहजानन्द का प्रतीक माना जाना चाहिए, जहां व्यक्ति प्रात्मा के अशुद्ध स्वरूप को दूर करने में जुटा रहता है । Pringle Panthoison, Ku Under Hill प्रादि विद्वानों की परिभाषात्रों में भी आत्मा और परमात्मा के मिलने को प्रमुख स्थान दिया है । यहां भी मैं सहमत नहीं हो सकती क्योंकि ईश्वर को सभी धर्मों में समान रूप से स्वीकार नहीं किया गया । अतः रहयवाद की ये परिभाषायें सार्वभौमिक न होकर किसी पन्थ विशेष से सम्बद्ध ही मानी जा सकेंगी । रहस्यवाद की परिभाषा को एकागिता के संकीर्ण दायरे से हटाकर उसे सर्वाङ्गीण बनाने की दृष्टि से हम इस प्रकार परिभाषा कर सकते हैं - रहस्यभावना एक ऐसा प्राध्यात्मिक साधन है जिसके माध्यम से साधक स्वानुभूतिपूर्वक श्रात्मतत्व से परम तत्व में लीन हो जाता है । यही रहस्यभावना अभिव्यक्ति के क्षेत्र में प्राकर रहस्यवाद कही जा सकती है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि अध्यात्म की चरमोत्कर्षाfवस्था की भावाभिव्यक्ति का नाम रहस्यवाद है । इस अर्थ की पुष्टि में हम पीछे प्राकृत जैनागम तथा धवला आदि के उद्धरण प्रस्तुत कर चुके हैं । इस परिभाषा में हम रहस्यवाद की प्रमुख विशेषतानों को इस प्रकार प्रस्तुत कर सकते हैं- (1 ) रहस्यभावना एक प्राध्यात्मिक साधन है । अध्यात्म से तात्पर्य है चिन्तन । जैन दर्शन में प्रमुखतः सात तत्व माने जाते हैं— जीव, प्रजीव, माधव, बन्ध, संवर, निर्जर और मोक्ष । व्यक्ति इन सात तत्वों का मनन, चिन्तन मौर अनुपालन करता है । साधक सम्यक् चरित्र का परिपालन करता हुआ सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की प्राराधना करता है । यहां सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चरित्र साधन के रूप में स्वीकार किये गये हैं । (2) रहस्यभावना की अन्यतम विशेषता है स्वानुभूति । बिना स्वयं की प्रत्यक्ष मनुभूति के साधक साध्य की प्राप्ति नहीं कर सकता । इसी को शास्त्रीय परिभाषा में सम्यग्दर्शन कह सकते हैं। अनुभूति के उपरान्त ही श्रद्धा दृढतर होती
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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